ईश्वर ने जग को बनाया तो सत्व के साथ रज और तम को भी बनाया। वैसे सत्व को ही जीवन का आदर्श कहा गया। पर सत्व के शेष दोनों भाई भी उसके साथ साथ कदम मिलाकर चलने लगे। फिर जब तक सृष्टि रहेगी, तीनों ही भाई साथ साथ दुनिया को चलायेंगें। पता नहीं क्या आश्चर्य है कि सृष्टिकर्ता को तीनों की ही आवश्यकता लगी। वैसे एक महान संत ने रज और तम को पूरी तरह नष्ट करने का बीड़ा भी उठाया था। अद्भुत बात थी कि वह महान संत कोई मनुष्य न था। अपितु वह असुरों के कुल से था। कुल किसी के विचारों के विस्तार का वास्तविक परिचय नहीं होते हैं। यह सत्य है कि बचपन से सुनते रहे आचरण ही अधिक प्रिय रहते हैं। वही मनुष्य के संस्कार बन जाते हैं। पर कुछ अलग भी सोचने लगते हैं। असुर कुल में जन्म लेकर भी रज और तम रहित विश्व की कामना करने बाले महान संत गयासुर की कथा का इस कथा से विशेष संबंध नहीं है। बस इतना ही जानने योग्य है कि तीनों ही सृष्टि में किसी न किसी तरह योगदान देते हैं। 
   धरती पर माता कात्यायनी और दूसरी देवियों ने भले ही असुरों को पराजित कर दिया हो पर सत्य यह भी है कि तम कभी नष्ट नहीं होता। वह अलग बात थी कि समय प्रतिकूल होने पर खुद के छिपने की जगह ढूंढ लेता है। 
   पातालकेतु, महिषासुर का छोटा सा अनुचर उस संग्राम के बाद भी शेष बचा, धरती के भीतर गहराइयों में पाताल लोक के एक हिस्से पर अपने कुछ साथियों के साथ रहने लगा। अभी उत्पात करने हेतु शक्ति संपन्न न था। देवों से तो बहुत दूर, धरती के किसी शक्तिशाली राजा से भी सीधे सीधे युद्ध करने का उसका साहस न था। फिर स्त्रियों का वीर रूप देख उनसे भयभीत भी था। हालांकि स्त्रियों को ही असुरों के पतन का कारण जान वह स्त्रियों का ही शत्रु बन रहा था। और उसके इस आसुरीय पतन में उसकी संगिनी थी, उसी की पत्नी रंभा। जो कि स्त्रियोचित गुणों से हीन, कामना की पुजारिन, मानवता की पूर्ण शत्रु, एक कुलटा स्त्री का प्रतिनिधित्व करती थी। वह दूसरी बात थी कि रंभा को अपने पतिव्रता होने का दिखावा करना अधिक पसंद था। पतिव्रता का अर्थ पति को धर्म की राह दिखाना है, इस सिद्धांत से परे वह खुद पातालकेतु को अधर्म के लिये प्रोत्साहित करती। 
   एक न एक दिन हर पाप का अंत होता है। खुद भगवान ब्रह्मा से वरदान पाकर महिषासुर खुद को बचा न पाया फिर अधर्म को अपने जीवन का आधार बना पातालकेतु किस तरह सुरक्षित रहता। उसके भी अंत का आधार बनना था। पर उसे ज्ञात ही नहीं था कि उसका अंत उसी सुंदर कन्या के आकर्षण के कारण होगा जिसे वह नित्य चुपचाप देखता है और जिसके हरण की योजना वह बना रहा है। 
   पातालकेतु द्वारा एक सुंदर कन्या का हरण कर उसका शील नष्ट कर उसे अपने रनिवास की दासी बनाने की योजना ही दुख का विषय न थी। उससे भी अधिक दुख की बात थी कि पातालकेतु के इस आसुरीय उपक्रम में उसे प्रोत्साहित करने बाली खुद उसकी स्त्री रंभा ही थी। उचित था कि रंभा पातालकेतु की दुष्टता पूर्ण कृत्यों को अपने स्तर से रोकती। उसे समझाती। धर्म की राह पर लाती। पर बचपन से ही गलत को सही समझती आ रही रंभा के लिये यह कोई गलत न था। शायद ऐसी ही स्त्रियों को कुलटा की संज्ञा दी जाती है। जो न तो पति के लिये कुछ यथार्थ कर पाती हैं और न समाज के लिये। 
   पातालकेतु जिस सुंदर कन्या के रूप पर मोहित था, वह कन्या कोई और नहीं अपितु गंधर्व राज विश्वावसु की पुत्री मदालसा ही थी। अपने अनुपम सौंदर्य से उस असुर के मन का आखेट करने बाली मदालसा अभी तक असुरों से सुरक्षित रहना नहीं जानती थी। अभी तक उसने जितना जाना था, उसके अनुसार सृष्टि में सब अच्छा ही अच्छा था। भक्ति और वैराग्य जैसे विंदुओ से वह बचपन से परिचित थी। राजकुमार ऋतुध्वज को देख वह पहली बार प्रेम के स्वरूप से परिचित हुई। इस समय मदालसा की स्थिति उस विरहिणी प्रेयसी जैसी थी जो खुद को जानबूझकर अपने प्रियतम से दूर किये थी। न केवल खुद विरहाग्नि में जल रही थी अपितु अपने प्रियतम को भी उसी विरह अग्नि का परिचय करा रही थी। और इस निष्ठुरता का कारण भी था उसका प्रेम। आखिर उसे जिससे प्रेम हुआ था, वह राजकुमार खुद एक विद्यार्थी था। अभी जीवन के कठिन पाठ सीख रहा था। मदालसा जानती थी कि अभी उसका बार बार राजकुमार के समीप जाना राजकुमार को उनके शिक्षण से दूर कर सकता है। 
    इस समय गंधर्व लोक में ही रहकर वह अपना समय व्यतीत कर रही थी। अनेकों ललित कलाओं के शिक्षण में वह खुद को व्यस्त रखकर अपने प्रेम को छिपाने का उद्यम करती थी। पर प्रेम भी क्या कोई छिपाने का विषय है। यह तो वह रोग है जो कि छिपाने पर और अधिक उजागर होता है। अनजान को भी खुद अपना पता देता है। 
  दूसरी तरफ पातालकेतु भी मदालसा की चाहत में अधिक विकल हो रहा था। और उसकी पत्नी रंभा तैयार कर रही थी एक धोखे की नयी पृष्ठभूमि। एक ऐसी गाथा जिसपर विश्वास करने के लिये विश्वास को भी अविश्वास होने लगे। 
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’
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