मदालसा को नृत्य और संगीत में तो पहले से ही महारथ हासिल थी। फिर उसने चित्रकला का अभ्यास किया। जल्द ही वह चित्रकला में प्रवीण हो गयी। पर जैसे ही उसे ध्यान आया कि उसने राजकुमार को खुद के विषय में क्या बताया था, उसका मन वैचैन हो गया। अब कुछ दिनों से वह आयुर्वेद के कुछ सिद्धांतों को पढने लगी। हालांकि उसे आयुर्वेद समझाने बाला कोई न था। फिर भी वह आयुर्वेद समझना चाहती थी। प्रसिद्ध आयुर्वेद के आचार्य धन्वंतरि की लिखी कुछ पुस्तकें उसके पास थीं। उन्हीं से विभिन्न पदार्थों के औषधीय गुण और दोष समझ रही थी। पथ्यापथ्य की जानकारी ले रही थी। हालांकि उसका मन कभी भी आयुर्वेद पढने में न लगता। अभी तक गायन का अभ्यास करने बाली मदालसा को आयुर्वेद कुछ उसी तरह भयभीत करता जैसे कि कुछ छात्रों को गणित के सूत्र। मन की इच्छा होने पर ही विषय सरल लगते हैं। और मदालसा का मन होता कि वह प्रेम भरे गीतों में खो जाये। वैसे भी इस समय उसका मन और मस्तिष्क पूरी तरह राजकुमार ऋतुध्वज के प्रेम के आधीन था। पर सत्य यह भी था कि बिना आयुर्वेद के ज्ञान के वह दुबारा राजकुमार के समीप जा भी नहीं पायेगी। आखिर उस दिन उसने खुद को आयुर्वेद की छात्रा जो बताया था। फिर खुद को पुनर्मिलन के लिये तैयार भी करना था। जानती थी कि प्रेम की नौका पर सैर करना कभी भी आसान नहीं होता। फिर अविश्वास की एक छाया अच्छी से अच्छी प्रेम कहानी को नष्ट कर देती है। वैसे जैसा उसका आयुर्वेद में रुझान दिख रहा था, उस आधार पर तो उसका आयुर्वेद के ज्ञान पर अधिकार कर पाना असंभव सा था। फिर भी अपनी कोशिश कर रही थी।
आयु बढने के साथ बड़े भाई और बहन की भूमिका कुछ बदल जाती है। निश्चित ही कुण्डला ने मदालसा को अपनी छोटी बहन ही माना था। अब मदालसा की आयु के इस मोड़ पर वह मदालसा से कुछ दूरी रखने लगी। दूर से ही अपनी छोटी बहन की गतिविधियों को देखने लगी। मदालसा के नवीन हाव भाव स्पष्ट थे। लग रहा था कि वह भी प्रेम की सरिता में स्नान कर चुकी है। ऐसे में कुण्डला को पुष्कर माली की स्मृति हो जाती। फिर वह कुछ दूर अपनी साधना में जुट जाती। आखिर अब उसे भी पुष्कर माली का साथ चाहिये। पर पुष्कर माली तो भगवान विष्णु के चरणों में समाकर आवागमन के चक्र से मुक्त हो चुका है। अभी कुण्डला की साधना शेष है। तभी तो माता आदिशक्ति के उपक्रम में उनका साथ देकर भी वह अभी तक आवागमन के चक्र में बंधी हुई है। अथवा अभी उसकी मुक्ति का अवसर नहीं आया है। निश्चित ही विश्वास फलदायी होता है। कुण्डला का विश्वास भी एक दिन फलीभूत होगा जबकि भगवान विष्णु के श्रीचरणों में मुक्त होकर वह भी अपने पति का साथ पा जायेगी।
आयुर्वेद का अभ्यास करते करते मदालसा कुछ थक सी गयी। बार बार अपना पाठ याद करती और हर बार उसे पाठ याद नहीं होता। अपनी असफलता पर वह क्षुब्ध हो रही थी। विचार कर रही थी कि इस तरह वह कैसे अपने प्रेम को प्राप्त करेगी। आखिर प्रेम की वह शक्ति कहाॅ है जो मृतक को भी जिंदा कर देती है। आखिर प्रयासों के बाद भी आयुर्वेद का शिक्षण क्यों नहीं। क्या राजकुमार के प्रति मेरा प्रेम कुछ असत्य है। जिस रूप में उनसे मिलन हुआ है, उसी तरह तो आगे मिलन संभव है। अन्यथा राजकुमार के मन में उठा अविश्वास का भंवर मेरे इस प्रेम को ही नष्ट कर देगा।
किसी ने पीछे से मदालसा के नैत्र बंद कर लिये।
” इतना प्रयत्न क्यों राजकुमारी। देखो उपवन में इतने पुष्प खिले हैं। बहुत दिन हो गये, आप उपवन की तरफ गये ही नहीं हो। इस राजमहल से बाहर भी निकलो। खुद को इस बोझिल विषय से प्रथक भी करो।”
मदालसा देख रही थी उलीकी को। उलीकी जो कि उपवन अधीक्षक की पुत्री, मदालसा की हमउम्र, उसकी सखी थी। मदालसा बहुत दिनों से उपवन में नहीं गयी। उलीकी ही अपनी सखी से मिलने आ गयी।
” उलीकी। मुझे अधिक तंग न करो। देखो। जानती हूं कि उपवन में नवीन पुष्प खिले हैं। पर मेरे मन के खिले हुए पुष्प तो मुरझा से रहे हैं। लगता है कि आयुर्वेद की जानकारी के बिना मेरे मन उपवन के पुष्पों का खिलना असंभव सा है। खिले हुए पुष्प फिर से मुरझा रहे हैं। और यह आयुर्वेद। कोशिश करने पर भी याद नहीं होता है। “
उलीकी कुछ समझ न पायी। हमेशा उपवन में भ्रमण की आकांक्षी उसकी सखी को क्या हुआ है। आखिर क्यों वह किसी नीरस विषय के पीछे जुटी हुई है। अथवा कहीं कोई विशेष बात तो नहीं है। क्या किसी आयुर्वेद के जानकार ने सखी का मन तो नहीं छीन लिया है।
फिर दोनों सखियों में धीमे धीमे शव्दों में बातें होने लगीं। मदालसा चाहकर भी उलीकी से कुछ छिपा न पायी। उस सुबह गोमती नदी के तट पर राजकुमार से मिलन और अनजाने में खुद को आयुर्वेद की छात्रा बता देना। वास्तव में यह ज्ञात ही नहीं था कि आयुर्वेद कितना कठिन है। उलीकी के चेहरे पर मंद मंद मुस्कान आ गयी।
फिर उलीकी मदालसा को हाथ पकड़कर उपवन की तरफ ले चली। मदालसा उन सुक्ष्म अंतरों को समझ नहीं पायी। वैसे भी प्रेम विरहिणी को इतना कहाॅ ध्यान कि वह समझ सके कि उसकी सखी उलीकी के चाल धाल में कुछ अंतर है। समझ न सकी कि कोई धोखा हो सकता है।
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’