उपवन में फूलों से लदे तरुओं के मध्य, तितलियों और भंवरों से बातें करते करते समय का पता ही नहीं चला। धीरे-धीरे अचानक मदालसा की आंखें भारी होने लगीं। धोखे का आरंभ हो चुका था। वैसे भी मदालसा को खुद का ज्ञान कम ही रहता था। पर आज जो हो रहा था, वह प्रेम रोग का परिणाम न था। अपितु एक षड्यंत्र था। पातालकेतु द्वारा रचित एक षड्यंत्र जिसमें उसका साथ उसकी जीवन संगिनी दे रही थी। हाॅ यही सत्य था। तभी तो उलीकी के व्यवहार में अंतर था। क्योंकि वह उलीकी थी ही नहीं। मदालसा उपवन में अपनी सखी के कंधे पर सर रखकर सो गयी। जानती न थी कि वह जिसपर विश्वास कर रही है, वह तो उसकी सखी ही नहीं है।
   काफी देर बाद जब मदालसा की नींद टूटी तो वह अपरिचित स्थान पर थी। एक सुंदर भवन। अनेकों स्त्रियों के मध्य वह अनजान। उसकी सखी उलीकी भी साथ न थी। हालांकि इस समय भी उसे यह सब एक स्वप्न सा लगा। मानों कि वह राजकुमार की दुल्हन बनने जा रही हो। ये मंगल गीत कुछ इसी तरह के तो हैं। जानती न थी कि उसका छल से हरण हो चुका है। इस समय वह दुष्टों के चंगुल में फसी थी। मंगल गीत निश्चित ही गाये जा रहे थे। पर वे मंगल गीत न थे। भला एक अबोध बालिका के साथ अत्याचारों का भी आरंभ किस तरह गीतों से हो सकता है। पर था कुछ इसी तरह।
   मदालसा कुछ समय विचार करती रही। खुद को चिकोटी काट स्पष्ट था कि यह कोई स्वप्न नहीं है। फिर उसके मन में एक भय की सिहरन सी दौड़ने लगी। आज तक दुखों से अपरिचित रही मदालसा सामने दुखों का पहाड़ देख रोने लगी। पर आज उसके आंसू पोछने बाला कोई न था। इन असुरों को तो एक कन्या को आंसुओं में ही देख अलग आनंद आता था। 
   मदालसा कुछ क्षण रोती रही। फिर अचानक उसने अपने आंसू पोंछ लिये। मन में साहस का संवरण किया। कुण्डला की कही बातों का स्मरण कर उन्हें खुद में आत्मसात करने लगी। विषम से विषम परिस्थितियों में भी साहस ही मनुष्य का मार्ग प्रशस्त करता है। संसार भयभीत को और अधिक भयभीत करता है। कमजोर पर अधिक शक्ति दिखाता है। पर एक बार विषम परिस्थितियों से भी सामना करने को तैयार से वे परिस्थितियां भी हार मान लेती है। 
   मदालसा के चेहरे पर साहस देख एक बार असुर नारियों का उत्साह मिट गया। सचमुच जब असुर राज का आगमन हो रहा है, ऐसे में यह कन्या बिना घबराये शांत बैठी है। इस समय इसकी आंखों में देख पाना भी असंभव सा है। नहीं। अभी इसे भयभीत करना आवश्यक है। तभी तो स्वामी को अधिक आनंद मिलेगा। 
  ” अरे मूर्ख कन्या। शायद तुम जानती नहीं हो कि तुम कहाॅ हो। शायद तुम्हें यह भी ज्ञात नहीं है कि अब तुम्हारा जीवन कैसा होने बाला है। शायद तुम जानती नहीं हो कि अब तुम्हारे जीवन में सारे सुख ही नष्ट हो चुके हैं। शायद अब जीवन में कभी भी सुखों की छाया भी नहीं पाओगी। “
  रंभा कि दहाड़ सुनकर भी मदालसा विचलित नहीं हुई। जीजी ने यही तो समझाया था। डर तभी तक डर होता है जब तक कि डरा जाये। निर्भय के सामने से डर खुद डरकर भाग जाता है। 
  ” पहले मुझे यह बताओ कि मैं कहाॅ हूं। क्या माता आदिशक्ति के महायज्ञ में सहयोगी रहीं कुण्डला की छोटी बहन को इस तरह धोखे से कैद कर लेना का परिणाम भी नहीं जानती।” 
   ” अरे। तुम्हें कोई भी बचाने नहीं आ सकता है। सत्य तो यही है कि तुम्हारी सुंदरता ही तुम्हारी शत्रु है। आखिर तभी तो हमारे स्वामी का मन इस सुंदरता का पान करने का हुआ है। सुंदर पुष्पों को रौंद देने का आनंद। वही तो होने बाला है। और तुम अपनी असहायता पर अश्रु बहाने के बजाय किस अज्ञात पर विश्वास कर रही हों। मानों कि कोई तुम्हें इस नरक से बचाने ही आने बाला हो। सत्य तो यही है कि इस कैद में आने के बाद किसी भी रूपसी कन्या का बाहर जा पाना ही संभव नहीं है। “
” क्यों संभव नहीं है। किसी स्त्री को आने और जाने से रोक सके, ऐसा अभेद्य सुरक्षा तंत्र तो कहीं नहीं है। फिर मुझे देख ये रक्षक इस तरह भयभीत क्यों हैं। “
   इस बार वे असुर स्त्रियां भी भयभीत हो गयीं। असुरों के पतन के समय कुण्डला से परिचित हुईं आज अपने समक्ष खुद कुण्डला को देख रही थीं। जिसे रोक पाने में असुर सैनिक भी असमर्थ थे। कुण्डला अपनी बहन मदालसा की रक्षा करने खुद पातालकेतु के गुप्त आवास तक आ चुकी थी। उसका साथ ही मदालसा के साहस को बढाने बाला और दुष्टों के मन में भय को पैदा करने बाला हुआ। वैसे पातालकेतु खुद मदालसा के निकट आने बाला था। पर जब उसे कुण्डला के आममन की जानकारी हुई तो उसका भी साहस मदालसा के निकट आने का न हुआ। ढोलों पर दी जा रही थाप रुक गयीं। आसुरीय रास रंग बंद हो गया। दबे जुबान यह भी चर्चा उठने लगी कि कहीं मदालसा का हरण शेष असुरों के जीवन पर ही भारी न पड़ जाये। पहले भी असुर स्त्रियों के हाथों पराजित हुए हैं। अब फिर से कहीं स्त्रियों के हाथों संहार का योग तो नहीं बन रहा है। 
   मदालसा निश्चित ही पातालकेतु की कैद में थी। पर किस तरह की कैद। जबकि कैद करने बाले रक्षक ही भयभीत हों। अब कुण्डला भी मदालसा के साथ थी। और कुण्डला के आवागमन पर किसी भी रक्षक का कोई नियंत्रण न था। 
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’
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