कुलगुरु तुबुंर के आश्रम में एक बड़ा सा आयोजन किया जा रहा था। कितने वर्ष बृह्मचारी के रूप में रहते आये, सुंदर वस्त्रों को त्याग बल्कल वस्त्र धारण करते आये विद्यार्थी अपने परिवार द्वारा भेजे वस्त्र पहने थे। वैसे यह अधिकांश को अच्छा नहीं लग रहा था। अभी तक सभी एक जैसी स्थिति में रहते आये थे। किसी के मन में कोई भेदभाव जैसी बात न थी। पर जब शिक्षा गृहण कर अपने घर जाने का अवसर आने से पूर्व ही सभी की स्थिति का अंतर दर्शाना आवश्यक न था। पर शायद आवश्यक भी था। अभी तक गुरुकुल में रहकर बराबरी का पाठ पढते आये युवाओं को उनके भविष्य के लिये सचेत भी करना था। निश्चित ही जीवन इतना आसान नहीं होता।
एक विशाल हवन का आयोजन किया गया था। शिक्षा पूर्ण करने बाले छात्र जिनमें राजकुमार ऋतुध्वज, सुजान और कापाली भी थे, यज्ञ की वेदी में आहुति दे रहे थे। अद्भुत बात है। शिक्षा का आरंभ भी हवन से हुआ था और अंत भी हवन से ही। मानों यह जीवन ही एक हवन है। जिसमें सब कुछ अर्पण करना है। कुछ भी साथ नहीं ले जाना है।
” यानि अस्माकं सुचरितानि, तानि त्वया उपासयेत ।” गुरु तुंबुर ने अपने शिक्ष्यों को आखरी शिक्षा दी। ” कोई भी मनुष्य कभी भी पुर्ण नहीं होता है। कोई भी कृत्य कभी भी पूरी तरह सही नहीं होता है। वास्तव में परिस्थितियां निर्धारित करती हैं कि क्या सही है और क्या गलत। एक परिस्थिति में सही अन्य परिस्थिति में गलत भी हो सकता है। कर्म की गति गहन कही गयी है। फिर आवश्यक है कि प्रत्येक क्षण सोच विचार कर सही और गलत का निर्णय लिया जाये। भले ही हम आपके गुरु हैं। फिर भी अपने जीवन में हमारा अंधानुकरण मत करना। परिस्थिति के अनुसार हमारे आचरण को तौलना। यदि हमारा वह आचरण उस परिस्थिति में भी सही हो तभी उसका अनुसरण करना। अन्यथा सही को गहराई से विचार कर आचरण कराना। यही हमारी अंतिम शिक्षा है। “
उसके बाद एक वियोग का दृश्य उत्पन्न हो गया। वैसे आज के दिन के लिये सभी बहुत समय से लालायित थे। पर जब वह समय आया तब मित्रों को आपसी विरह अखरने लगा। सभी एक दूसरे से गले मिल रहे थे। भविष्य में भी मिलने जुलने का वचन दे रहे थे। हालांकि जानते थे कि जीवन समर में आगे बढने पर पुरानी मित्रता भी फीकी पड़ जाती है। पर इस समय तो ऐसा ही लग रहा था कि सभी मित्र एक दूसरे को जीवन भर याद रखेंगे।
राजकुमार ऋतुध्वज का राज्य में भव्य स्वागत हुआ। आयोजनों की धूम में राजकुमार कुछ समय के लिये मन में उठे प्रेम के गुबार को भूल गये। पर प्रेम भी क्या वास्तव में भूलने का विषय है। पहले अध्ययन के कारण उस कन्या को भूलने का प्रयास करते राजकुमार अब यादों के सागर में डूबे जा रहे थे। जिसमें से उन्हें बाहर केवल वह कन्या ही निकाल सकती थी। जल्द ही राजकुमार ने अपने कर्तव्य का निश्चय कर लिया। वह आयुर्वेद के आचार्य धन्वंतरि के आश्रम में उस कन्या का पता लगाने चल दिये। निश्चित ही अब उस कन्या की शिक्षा भी पूर्ण हो चुकी होगी। निश्चित ही अब वह आश्रम में तो नहीं मिलेगी। फिर भी आश्रम से उस कन्या के घर का पता मिल सकता है। उसके बाद…. ।
उसके बाद क्या.? सचमुच यह कठिन प्रश्न है। किसी कन्या के मन के भावों को जाने बिना किस तरह कुछ कहा जा सकता है। संभव अभी बहुत कुछ है। फिर इस विषय में जल्दबाजी करना उचित भी नहीं है। फिर भी एक उपाय हो सकता है। उस कन्या को अपने राज्य में राज्य वैद्य के रूप में नियुक्त किया जा सकता है। धीरे-धीरे उसके मन को परखा जा सकता है। और यदि उस तरफ भी वही विचार हुए जो मेरे मन में हैं तब तो…. ।
राजकुमार ऋतुध्वज कल्पना के फलीभूत होने की प्रसन्नता में कुछ भी नकरात्मक विचार नहीं कर पा रहे थे। संभव बहुत कुछ था। पर इतना अधिक संभव होगा, यह राजकुमार भी नहीं जानते थे।
सत्य में कन्या का कथन एक झूठ निकला। मदालसा नामक कोई भी कन्या गुरु धन्वंतरि की छात्रा ही नहीं थी। मन में जिसके लिये प्रेम उपजा था, उसका कथन तो असत्य निकला। असत्य की कमजोर नींव पर खड़ा किया गया रिश्तों का मजबूत भवन भी धराशायी हो जाता है। मन के जिस कौने में प्रेम की बहार बह रही थी, अब वही कौना धोखे की आहट की ज्वाला में दग्ध हो रहा था। सत्य है कि प्रेम की पराकाष्ठा भी द्वेष के सर्वोच्च शिखर को जन्म देती है।
राजकुमार को अभी भी मदालसा की तलाश थी। पर सत्य जानने के लिये। निश्चित ही वह किसी शत्रु देश की गुप्तचर रही होगी। अन्यथा असत्य भाषण का क्या अर्थ। निश्चित ही राज्य की सुख संवृद्धि किसी की आंखों में चुभ रही होगी। निश्चित ही फिर षड्यंत्र का पटाक्षेप करना आवश्यक है। और उस पटाक्षेप के लिये आवश्यक है वह कन्या जो हमारे राज्य में गुप्त रूप से भ्रमण करती देखी थी। निश्चित ही वह कन्या हमारे राज्य में ही कहीं छिपी है। निश्चित ही राज्य का हित यही है कि उस कन्या को तलाश उसे गिरफ्तार कर उससे षड्यंत्र की जानकारी ली जाये। हाॅ यही आवश्यक है।
पर मदालसा को तलाश कर पाने के बाद भी राजकुमार उसे गिरफ्तार कर सख्ती कर पायेंगे। बार बार विचारने के बाद भी राजकुमार खुद में ऐसी शक्ति नहीं पाते। शायद अभी भी उनके मानस में कुछ तो प्रेम की बहार बह रही थी। भले ही राजकुमार उस बहार को देख कर भी अनदेखा कर रहे थे। पर सत्य तो यही है कि प्रेम एक बार होने के बाद कभी भी मरता नहीं है। इसी लिये तो प्रेम अमर कहा जाता है।
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’