दिन पर दिन गुजरते गये। घर में दया मात्र एक कमरे में सिमट गयी। बार बार अपनी ही गलती सुनते सुनते वह खुद को गलत भी मानने लगी। हाॅ… ।सच में मैं गलत क्यों नहीं हूँ। क्या पैसे की चकाचौंध में मैं अंधी नहीं हुई थी। जिस तरह आज मेहनत कर अपनी बेटी का पालन कर रही हूँ, उस समय नहीं कर सकती थी। मैं क्यों उस अनुचित का विरोध नहीं कर पायी, जिसका विरोध करना अति आवश्यक था। मुझे आखिर लगा ही क्यों कि शुचि के भविष्य के लिये मुझे किसी पुरुष के सहारे की आवश्यकता है। और वह पुरुष भी कौन… । वही जिसके बहशीपन का मैं खुद शिकार थी। पक्का तो नहीं, पर संभव है कि वही शुचि का वास्तविक पिता है। सही ही है कि मुझे ऐसे धूर्त के खिलाफ मुंह खोलना चाहिये था। फिर गलती तो मेरी ही है। इसमें असत्य कहाँ..।
  जाड़े आ गये। दया सुबह सुबह काम के लिये निकलती। काफी समय से अभ्यास की कमी और कुछ उम्र का भी प्रभाव, सर्दी की चपेट में आ गयी। फिर भी रोज का काम करना चलता रहा। खुद के लिये लापरवाही बढती गयी। और एक दिन वह बिस्तर पर ऐसी लेटी कि फिर दिन भर न उठी।
  सौम्या आतुर थी कि कब दया कमरे से बाहर निकले और उसे आज के हिस्से का जलील किया जाये। आखिर इंतजार करते करते वह दया के कमरे में पहुंच गयी। दया बेसुध..।
  सौम्या कुछ पल रुकी। चुपचाप निकलने की इच्छा होते हुए भी निकल न पायी। मन धिक्कारने लगा।
दया के सर पर हाथ रखा। माथा एकदम तप रहा था। जैसे तैसे उसे उठाकर अस्पताल ले गयी। बुखार दिमाग तक पहुंच चुका था।
  विद्यालय से शुचि वापस आ न पायी कि उसे भी किसी से माॅ की खबर कर दी। वह भी सीधे अस्पताल पहुंच गयी। सौम्या दया के सिरहाने बैठी थी।
  शुचि ने मुंह फेर लिया। सौम्या पर उसे विश्वास न था। सौम्या का वर्तमान रूप उसे मात्र धोखा लग रहा था। 
  कैलाश भी आ गया। माॅ को घर चलने के लिये कहने लगा। पर सौम्या शांत रही। एकदम शांत… । अपने मन के झंझावात से अकेले लड़ती हुई। 
  ” माॅ। अब घर चलो।” कैलाश ने एक बार फिर कहा। 
  ” तुम चले जाओ। और हाॅ शुचि को भी साथ ले जाओ। वह भी थकी हुई है।” 
“मैं कहीं नहीं जाऊंगी। अपनी माँ को छोड़।” 
  शुचि बोलना बहुत चाहती थी। फिर भी वह चुप रही। अस्पताल में तमाशा करना नहीं चाहती थी। 
  आधी से ज्यादा रात गुजर गयी। शुचि की भी आंख लग गयी। पर सौम्या… ।उसकी पलकें भी नहीं गिरीं। एकटक दया को निहारती। यही तो है उसकी बचपन की सखी, समय ने दोनों को कितना पराया कर दिया। दो बहनों को शत्रु बना दिया। 
  “शुचि।” दया के कराहने की आवाज आयी। सौम्या इस समय भी उसके साथ होगी, ऐसी उसे उम्मीद न थी। 
  सौम्या की आंखों से आंसू गिरने लगे। कभी जरा सी चोट लगने पर अपनी जीजी को पुकारने बाली छोटी बहन के स्वप्नों में भी अब वह तो नहीं है। 
  “जीजी। आप” शायद दया अभी भी सौम्या के साथ को स्वप्न ही अनुभव कर रही थी। 
  “हाॅ.. ।” फिर से सौम्या की हिचकियाँ सुनाई देने लगीं। 
  “जीजी। मालूम नहीं कि मुझे अधिकार है अथवा नहीं…” 
  “हाॅ बोल छोटी।” 
  शुचि भी पास आ गयी। 
  “जीजी। शुचि आपकी अमानत…। मैं नहीं जानती कि किसपर भरोसा करूं। कोई भी तो नहीं.. भरोसे लायक ।पर बात.. बेटी की है। सही या गलत…। एक बार फिर से… बचपन.. की सखी पर भरोसा…. ।”
  फिर दया की आवाज रुक गयी। परिंदा पिंजरे से आजाद उड़ गया। 
  समय गुजरता गया। सौम्या शुचि की जिम्मेदारी निभाती रही। इस विषय में उसका विवाद कभी कभी कैलाश से भी हो जाता। समाज, मान्यता, परिस्थिति, विचार, परिपाटी की कितनी ही गलतियों को अपने पश्चाताप से मिटाती रही। 
समाप्त 
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’
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