प्रेम त्याग है, बलिदान है, स्व को पूरी तरह मिटा देना है, पूर्ण समर्पण है। निश्चित ही प्रेम के विषय में ये बड़ी बड़ी विचारधारा सत्य हैं। पर शायद प्रेम अपनत्व की वह अवस्था है जहाँ से उम्मीद का आरंभ होता है। वह उम्मीद जो कोई मनुष्य किसी अपने से करता है, वही उम्मीद खुद व खुद अपने प्रेम से हो जाती है। सर्वस्व समर्पण की धारणा का जन्म भी उम्मीद से ही आरंभ होता है।
राजकुमार ऋतुध्वज ने विद्यार्थी जीवन में एक कन्या को गोमती नदी के तट पर सुबह सुबह देखा था। उस कन्या मदालसा ने मात्र अपनी सुरक्षा की दृष्टि से राजकुमार ऋतुध्वज से एक छोटा सा झूठ बोला। शायद उसे झूठ बोलने की आवश्यकता ही न होती यदि राजकुमार ऋतुध्वज और उसके दोनों मित्र सुजान और कापाली भी मदालसा की सुरक्षा में अति चिंतित उसे उसके घर तक सुरक्षित पहुंचाने की जिद न करते। एक पूर्णतः अपरिचित कन्या से राजकुमार ऋतुध्वज की यह उम्मीद कि वह उसे पूर्ण सत्य बतायेंगी, वास्तव में राजकुमार का मदालसा के प्रति प्रेम ही तो था। मदालसा की बात को सत्य मान राजकुमार का उसे तलाशने आयुर्वेद के आचार्य धन्वंतरि के आश्रम तक जाना यदि राजकुमार का प्रेम न था तो और क्या था। सही बात है कि प्रेम उम्मीद की आधारशिला पर ही अपनी इमारत खड़ी करता है।
अब जब राजकुमार के सामने मदालसा का यह सत्य प्रगट था, भले ही उसके मन में मदालसा के लिये अनेकों तरीकों के विचार आ रहे हों, भले ही वह मदालसा को किसी शत्रु राज्य की गुप्तचर समझ रहा हो, भले ही वह अपने राज्य में खुफिया गतिविधियों में संलग्न उस कन्या और उसके साथियों को ढूंढ उन्हें कठोर दंड भी देना चाहता था, फिर भी उसके मन के एक कौने में अभी भी एक उम्मीद शेष थी। उम्मीद थी कि उस सुबह गोमती नदी के तट पर मिली कन्या वास्तव में राज्य की विद्वेषी तो नहीं थी। उम्मीद थी कि मन में उस कन्या के प्रति उठे विचार झूठ निकलेंगे। उम्मीद थी कि शायद उस कन्या का झूठ बोलने के पीछे कोई गहरा कारण रहा होगा। उम्मीद थी कि जब वह उस कन्या से मिलेगे तब एक बार फिर से सत्य की धारा में उसके प्रति जन्मा अविश्वास बह जायेगा। उम्मीद तो बहुत सारी थीं। यह भी कि वह कन्या भी राजकुमार की जीवन संगिनी बनने को तैयार हो जायेगी। पर इतनी सारी उम्मीद का कारण क्या था। निश्चित ही ये सारी उम्मीद सिद्ध तो यही कर रही थीं कि राजकुमार उस कन्या के प्रेम रूपी नदी में पूरी तरह डूबा हुआ है।
दूसरी तरफ पातालकेतु के कैद में समय गुजार रही मदालसा को जब भी माता कामधेनु द्वारा बतायी बात याद आती, उसकी उम्मीद की किरणें बार बार उस सुबह मिले राजकुमार को ही खोजने लगतीं। निश्चित ही माता कामधेनु की कही बात सत्य होगी। निश्चित ही एक न एक दिन उसके जीवन का साथी खुद उसे इस कैद से आजाद कर संसार के समक्ष उसे मान देते हुए अपनी जीवनसंगिनी बनायेगा। पर वह जीवन साथी वह राजकुमार ही क्यों। उसी राजकुमार से उम्मीद क्यों।
अक्सर गंधर्व राजकुमारी के सपनों में राजकुमार ऋतुध्वज आता। सुनहरे रंग के अद्भुत अश्व पर सवार। असुरों का वध कर मदालसा से अपने प्रेम का निवेदन करते। उसे जीवन में सम्मान देने का विश्वास करते। उसे अपने जीवन की अर्धांगिनी बनाने की इच्छा व्यक्त करते।
प्रेम दोनों के ही मानस के साथ खेल रहा था। दोनों को विरह के क्षणों में तड़पने को मजबूर कर रहा था। मानों विरह की अग्नि में तपाकर दोनों को मजबूत बना रहा हो। प्रेम के बड़े खेल के बड़े खिलाड़ी बनाने को दोनों को तैयार कर रहा हो। दोनों के मन में उम्मीद की किरण जगाकर दोनों को तैयार कर रहा था ताकि दोनों ही प्रेम के अनोखे खेल में एक दूसरे के साझीदार बनकर जीवन समर में इस तरह आगे बढें कि प्रेम की अनोखी कहानी की आधारशिला रखें जहाँ प्रेम का अर्थ केवल भौतिक मिलन की अवधारणा से बहुत आगे आध्यात्मिक उन्नति के शिखर की उच्च श्रृंखलाओं तक व्याप्त हो सके। दोनों को तैयार करा रहा था ताकि दोनों ही प्रेम से आरंभ कर वैराग्य की अनोखी कहानी के प्रमुख चरित्रों को चरित्रार्थ कर सकें। निश्चित ही प्रेम का लक्ष्य कुछ ज्यादा बड़ा था। इसीलिये वह अपनी कहानी के पात्रों को उसी हिसाब से तैयार कर रहा था।
राजकुमार को उम्मीद थी कि वह मदालसा को तलाश लेगा। इस समय वह महाराज शत्रुजित के साथ उनके राज्य कार्य में उनकी सहायता कर रहा था। अक्सर अपनी सेना की शक्ति का आकलन करता। प्रजा के मध्य उनकी पीड़ा ज्ञात करने जाता। प्रत्येक नागरिक की स्थिति राजकुमार ऋतुध्वज को ज्ञात थी। यह निश्चित ही एक बड़ी बात थी। निश्चित ही यह सिद्ध करने को पर्याप्त था कि राजकुमार के जीवन में निश्चित ही प्रजा उनके व्यक्तिगत जीवन से भी आगे है। निश्चित ही वह भविष्य के श्रेष्ठ राजा सिद्ध होंगें।
इतने परिश्रम के बाद भी राजकुमार ऋतुध्वज का मन शांत न था। ढूंढने के बाद भी उन्हें मदालसा नहीं मिल रही थी। जिसका मिलना अति आवश्यक था। न केवल राजकुमार ऋतुध्वज के जीवन के लिये अपितु राज्य के लिये भी। लगातार असफलता के बाद भी उम्मीद उनका साथ नहीं छोड़ रही थी। हजारों असफलताओं के उपरांत भी उम्मीद को अपना हथियार बनाने बाला व्यक्ति निश्चित ही अपना लक्ष्य पा लेता है। पर राजकुमार का लक्ष्य ही वहाँ था जहाँ वह बिना किसी देवयोग से पहूंच ही नहीं सकता। मनुष्य के वश में केवल कर्म करना है। पर सत्य यह भी है कि अपने लक्ष्य को तलाशने में खुद को भी भूल जाने बाले को उसके लक्ष्य तक पहुंचाने का कार्य भी खुद विधाता ही करते हैं। कब और किसे वह लक्ष्य प्राप्ति का निमित्त बना दें, यह उनके अतिरिक्त कोई भी नहीं जानता है।
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’