आसमान से आग बरसती,
सड़कें तपती जैसा शोला।
कितनी गरम यह लू बहती,
लगेहै जैसे आग का गोला।
सुबह के 10 बजते-बजते,
सूरज की गर्मी बढ़ जाती।
जैसे कोई ये आग उगलता,
शरीर झुलस ये पूरा जाती।
प्यास के मारे है जी तड़पे,
जल मिले तो ये पाये चैन।
मनुष्य दौड़ रहा है तृष्ना में,
खुद छोड़े भागे ये सुख चैन।
तृष्णा है कुछ बन जाने की,
ये जीवन सफल बनाने की।
तृष्णा है सब कुछ पाने की,
सुंदर ये भविष्य बनाने की।
नहीं उसे मालूम यह शायद,
छटपटाने से कुछ ना होगा।
ईश्वर ही सबका दाता होता,
प्रभु दे जितना वो ही होगा।
जीवन है अनमोल ये बचाना,
तृष्णाओं से आनंद न खोना।
ये जीवन ही न रहे सुरक्षित,
तो क्या है पाना सब खोना।
रचयिता :
डॉ. विनय कुमार श्रीवास्तव,प्रतापगढ़,उ.प्र.