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धर्मगढ़ नाम की एक सुंदर नगरी थी वहां पर लोग आनंद पूर्वक अपना अपना जीवन यापन कर रहे थे। वही, रणविजय जी का मध्यम वर्गीय परिवार भी खुशहाल जीवन व्यतीत कर रहा था। तभी उनके पड़ोस में गुरुशरण जी का परिवार रहने आया। वही पास के बड़े नगर में उनका बहुत बड़ा व्यापार था। वे बहुत संपन्न और समृद्ध परिवार से थे। पर उन्हें अपनी समृद्धि का तनिक भी घमंड नहीं था बड़े व्यवहार कुशल लोग थे। कुछ ही समय में रणविजय जी और गुरुशरण जी का परिवार आपस में बहुत घुल मिल गए दोनो परिवार अब एक परिवार की तरह रहने लगे, पर गुरुशरण जी को अपना मध्यमवर्गीय होना धीरे धीरे अखरने लगा और वो भी बड़े आदमी बनने की होड़ में दौड़ने लगे।
और इस दौड़ भाग में उनका खुशहाल परिवार बिखरने लगा, पहले रणविजय जी अपने परिवार और बच्चों के संग उत्तम समय व्यतित करते थे पर उन्हें अब समय की कमी होने लगी
पैसे तो उनके पास बहुत आ गए सुख सुविधाएं भी बढ़ गई, पर अब खुशियों में कमी होने लगी। अब रणविजय जी के बच्चें अपने पिता संग खेलने को तरसने लगे उनकी पत्नी पति के संग दो पल सुकून के बिताने को तरसने लगी। धीरे धीरे उस परिवार में खुशियों की जगह अवसाद ने ले लिया अब इसका असर रणविजय पर भी पड़ने लगा फिर एक मित्र की सलाह पर वो एक मनोरोग चिकित्सक से मिले, परिस्थिति को समझने के बाद चिकित्सक ने अपनी प्रिस्क्रिप्शन बुक निकाली और लिखना शुरू किया.. इस अवसाद से निकलने की एक मात्र दवा है  “परिवार का साथ ” तब रणविजय जी गुस्से में बोले महोदय जी ये क्या मजाक है, आप कैसे चिकित्सक हैं, मैं तो अपने परिवार के साथ ही रहता हूं। तब चिकित्सक ने उन्हें शांत रहने को कहा और बोले मेरी बात ध्यान से सुनो रणविजय जी! 
आप परिवार के साथ तो रहते हैं पर उनके पास नहीं रहते क्योंकि आपका मन आपके पास नहीं रहता आप घर  परिवार में होते हुए भी मन से अपने कार्यक्षेत्र में रहते हैं। आप सोचते हैं ज्यादा कमाई कर के आप ज्यादा सुख सुविधाएं अपने परिवार को दे सकते हैं। ये सही भी है पर याद रखिए पैसों से आप सुविधाएं खरीद सकते हैं पर खुशियां नहीं खरीदी जा सकती। अधिक कमाना गलत नहीं है पर वह कमाई किस काम की जो आपका वो समय भी छीन ले जिस पर आपके परिवार का और आपका खुद का हक़ हैं। 
आपको पता हैं की जो छोटे बच्चें होते हैं वो हर दिन थोड़ा थोड़ा बढ़ते हैं, हर दिन वो कम से कम 10 नई चीज सीखते हैं, अब आप काम के सिलसिले में 2 से 3 दिन अपने बच्चों को देख नहीं पाते तो गणना कीजिए की अपने बच्चें के जीवन का कितना सुंदर और महत्वपूर्ण पल  आपने  ऐसे ही खो दिया। कुछ लोगो की मजबूरियां होती हैं परिवार से दूर रहना कोई सेना में है या कोई अत्यंत गरीब है जिस वजह से चाह कर भी वो परिवार के पास नहीं रह सकता। परंतु आप और हम जैसे मध्यम वर्गीय परिवार इतने तो सक्षम होते है की अपने परिवार संग समय व्यतीत कर के भी जीवन यापन अच्छी तरह कर सकते हैं पर देखा देखी हम भी बड़े बनने की राह में निकल पड़ते हैं। किसी भी देश की उन्नती, सभ्यता और संस्कृति को बनाए रखने का दायित्व हम मध्यम वर्गीय लोगो के कंधो पर हैं, हमे तो गर्व होना चाहिए अपने मध्यम वर्गीय होने पर क्योंकि जिंदगी जीने का सुख केवल हम ही भोग रहें। जो अति संपन्न हैं उन्हें तो सुख ही सुख हैं, और जो अति दरिद्र है उन्हें तो दुख ही दुख हैं। केवल हम मध्यमवर्गीय लोगों को ही यह सौभाग्य मिला हैं जो दुःख और सुख दोनो का स्वाद लेते हैं और आनंद पूर्वक जीवन यापन करते हैं, स्वयं भगवान कृष्ण ने कहा हैं सुख और दुख दोनो का रसपान करने वाले जीवात्मा ही सही मायने में अपनी जिंदगी जीते हैं। इतना सुनकर रणविजय को समझ आ गया की उसे अब क्या करना हैं। 
उन्होंने उस चिकत्सक को हृदय से आभार किया और उनकी लिखी दवा “परिवार का साथ” को लेकर घर की ओर चल दिए। वो अब समझ गया की उसे जिंदगी जीनी हैं काटनी नहीं हैं। सुख सुविधाओं से जीवन कट तो जाता हैं पर यदि जीवन को जीना है तो एकमात्र उपाय हैं अपनो का साथ। अब रणविजय कम कमाई करने लगा पर उसकी खुशियां बढ़ गई अब वह रोज अपने बच्चों को बढ़ते देखता उन के साथ कभी कभी खुद भी बच्चा बन अपना बचपना जी लेता। पत्नी को समय देता, खुद के लिए समय निकालता। दिन भर चाहे कहीं भी रहे कितना भी काम करें पर शाम हमेशा परिवार संग बिताता । उस भले चिकित्सक की चाभी से रणविजय की बुद्धि पर लगा ताला खुल गया और धीरे धीरे अवसाद से बिखरा परिवार फिर से खुशहाल परिवार बन गया 
                        🙂🙂
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                              थ्रीमा विनोद साहू
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