डाक्टरी की पढाई पूरी करके रोशनी की नौकरी एक बहुत अच्छे अस्पताल में लग गयी। न जाने कितने साल पढाई में लङकी ने खपा दिये। पहले एम बी बी एस किया। बहुत अच्छे से उत्तीर्ण हुई। फिर भी पढाई बंद नहीं हुई। खाली एम बी बी एस से मन नहीं भरा। तो मास्टर की डिग्री भी प्राप्त की। खेलने खाने के दिन पढाई और पढाई को अर्पित कर दिये। अभी तक रोशनी के लिये न कोई दिन था और न कोई रात।
    रोशनी की इस सफलता में उसकी मम्मी, दादी और बहुत हद तक उसके पिता का भी हाथ था। पर एक मृतक व्यक्ति का अपनी बेटी की सफलता में भला क्या हाथ हो सकता है। आप भी दूसरों की तरह लेखक की मानसिक स्थिति पर संदेह कर सकते हैं। पर लेखक केवल वही लिख रहा है तो घर की तीनों स्त्रियां मानती आयीं हैं। आज तक रोशनी को उसकी हर सफलता पर उसे उसके पिता से आशीर्वाद दिलाया जाता था। जिन्हें रोशनी ने केवल चित्र में देखा था। 
   “अरी छोरी । बहादुर से आशीर्वाद लेकर काम पर जाइयो। जी नाहे कि बैसे ही चली जाये। पहली दफा काम पे जा रही है।” 
   “बिलकुल दादी। पापा को हाय बोले बिना मैं तो घर से भी नहीं निकलती।” 
  “चल, अब जादा मस्खा मत लगा। तेरो बाप कबतै तेरो इंतजार कर रहो है। और एक ये छोरी है कि बाप कू इंतजार करा रही है। “
   रोशनी अपने पिता के चित्र के पास खङी हुई। पीछे से दादी और मम्मी भी आ गयी। हमेशा दादी पिता की तस्वीर के सामने खङी होकर रोशनी की सफलता का बखान करती। 
  ” देख बहादुर। तेरी छोरी ने आज डाक्टरी में दाखिला ले लियो है। बहुत कम बालकन को दाखिला भयो है। “
” बहादुर। तेरी छोरी तो डाक्टरी में बहुत अच्छे ते पास भई है। पर छोरी अबै और पढबे की बोल रही है। बताबै डाक्टरी की बङी पढाई है।” 
   रोशनी आज सोच रही थी कि दादी बोलेंगीं -” देख बहादुर। छोरी ने बङी पढाई करके आज अस्पताल सम्हालने जायेगी। पूरी डाक्टरनी बन गयी है तेरी छोरी। अरे असली बाली। हमारे गांव में तो नर्स हूं डाक्टरनी बनी फिरतीं थीं। “
  पर रोशनी ने जो सुना वह अप्रत्याशित था। 
  “बहादुर। तेरे सपने हम पूरो ना कर सकें। तोकू चौं झूठी दिलासा दूं। तू जब हमें छोड़ के गयो तो रोशनी आयी नाहे थी दुनिया में। तू बहू को चिट्ठी में का लिखो करतो। सब पतो है मोंकूं। तू तो औलाद को खुद की तरह फौजी बनाबो चाहतो। तू ने तो कबू जी ऊ ना सोची कि छोरा ना होके छोरी हूं हो सके। अब छोरी कैसे फौजी बनेगी। फिर मोकू और बहू को जेही सही लगो कि छोरी को डाक्टरनी बनायेंगे। छोरी से हमेशा झूठ बोलो कि तेरो बाप तोकू डाक्टरनी बनाबो चाहतो ।खूब मन ते पढ ।तभी तो बाप को सपना पूरो करेगी। आज तक असल बात छिपा रही है हमने। अब काऊ को धोखे में ना रखूं। ना तो तोए और ना छोरी को। छोरी अब तू डाक्टरनी बन गयी है। खूब मन लगा के काम कर। जादा ते जादा काम सीख। और बहादुर। तू भी अब चुप रहियो। सब दुनिया तोरे हिसाब ते ना चलेगी। “
   रोशनी को विश्वास ही नहीं हुआ कि जिस पिता के सपने को पूरा करने के लिये वह डाक्टर बनी है, उनका सपना तो कुछ और ही था। 
   रोशनी अस्पताल में मेहनत से काम सीखने लगी। पर अब मन उचट गया था। मम्मी और दादी ने कैसे समझ लिया कि वह लङकी है, इसलिये पिता का सपना पूरा नहीं कर सकती। 
………. 
  रोशनी घर से बहुत दूर आर्मी के चयन बोर्ड के समक्ष बैठी थी। उसने कब आर्मी में डाक्टरों के चयन का फार्म भरा, इस विषय में न तो अपनी माॅ को बताया और न दादी को। एक बङे अस्पताल में नौकरी का इंटरव्यू बताकर पर अपने पिता को सच बोलकर रोशनी चली थी। 
   “पिता जी। आज मैं आपके सपने को पूरा करने जा रही हूं। आपके सपने को पूरा करके ही दादी और मम्मी को सही बात बताऊंगी। और मैं आपको कोई धोखा नहीं दे रही हूं।” 
  इस घटना को महीनों बीत गये। रोशनी भी निराश होने लगी। एक दिन उसे अपनी सफलता का पत्र मिला।
   ” दादी। आपको यह क्यों लगा कि लङकी होकर मैं अपने पिता का सपना पूरा नहीं कर सकती। “
” अरी छोरी। कबू फौज में छोरिन कू नौकरी लगै। “
” दादी। यही तो बता रही हू कि फौज में भी लङकियां नौकरी करती हैं। पायलट, इंजीनियर, डाक्टर के पद लङकियां सम्हालती हैं। उन्हें युद्ध की भी ट्रेनिंग दी जाती है। और दो महीने पहले मै जो पूने गयी थी, वह फौज में डाक्टर की नौकरी के इंटरव्यू के लिये गयी थी। मेरा चयन हो गया है। “
” सही बोल छोरी। “
” दादी एकदम सही कह रही हूं। देखो मेरा लेटर। “
” छोरी। तो चल अपने बाप कू खबर सुना। “
रोशनी अपने पिता की तस्वीर के पास खङी थी। पीछे से दादी और मम्मी भी आ गये। 
” बहादुर। सच में तेरी छोरी तो बोत होशियार है। तोरे सपना पूरा करबै खातिर फौज में नौकरी लगबा रही है। अब मैं तो कबू ना बोलूं कि छोरी ई ना कर सकें। तू भी दिमाग में भर ले कि छोरी अपने बाप के सपना पूरो करबे खातिर कछू भी कर सकें।” 
   आज घर में अलग खुशी का माहौल था। मन में जो अपराध बोध था, वह खत्म हो चुका था। 
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’
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