मैं बाबुल के बगिया की कली हूं,
हंसते मुस्कुराते अभी आधी खिली हूं,
न दुनिया का गम न रिश्तों का झमेला,
अपनी हीं धुन में गुनगुनाती अलबेली हूं।
यह धरती भी मेरी अंबर भी है मेरा,
आसमान को मुट्ठी में लिए फिरती हूं,
महकाती रहती हूं बगिया को खुशबू से,
पैरों में खुशी के घुंघरू बांधे चली हूं।
उषा की किरणें जब नहाती हैं तन को,
मां की मखमली आंचल को ढूंढती हूं,
गोधूलि की बेला में अलसाई सुमन सी,
सपनों की गोद में सोने को मचली हूं।
स्वरचित रचना
रंजना लता
समस्तीपुर, बिहार