पूछो ना उनसे हाल जीवन का,
जिनके पास कोई रोजगार नहीं,
मारे-मारे फिरते हैं सड़कों पर,
घर में भी उनका सम्मान नहीं।
रहते हैं सदा वो बुझे-बुझे से,
जीवन को बस कंधों पर ढोते हैं,
दिन और रात उनके लिए बराबर,
पर, सबसे छुप कर वो रोते हैं,
मन की व्यथा कहें तो किससे,
इस भीड़ में भी कोई अपना नहीं,
पूछो ना उनसे हाल जीवन का,
जिनके पास कोई रोजगार नहीं।
मन की लालसा मन में ही दबाए,
कुत्सित विचारों से घिरने लगते हैं,
कुंठा हताशा और निराशाओं के,
जटिल चक्रव्यूह में फंसने लगते हैं,
फिर चलने लगते हैं उस पथ पर,
जिस पथ की कोई दिशा नहीं,
पूछो ना उनसे हाल जीवन का,
जिनके पास कोई रोजगार नहीं।
स्वरचित रचना
रंजना लता
समस्तीपुर, बिहार