मीनू की अपनी मां से नहीं बनती थी। लेकिन आज जब मां इस दुनिया में नहीं थी, वो मां को मिस कर रही थी।
शुरू से ही मीनू स्वतंत्र स्वभाव की लड़की थी, बिल्कुल मां से विपरीत । मां को घर के काम से संतुष्टि मिलती थी, जबकि मीनू को बाहर के कामों में रूचि थी।
मीनू आज मां को खोकर मां की यादों में उन्हें ढूंढने की कोशिश करती रहती है। मां ने कई बार मीनू को घर के कामों से जोड़ने की कोशिश की थी। ऐसा ही एक लम्हा मां की यादों की पिटारी खोलने पर मां की साड़ी देख मीनू के ज़हन में उभर आया
” मीनू तू कभी नहीं सुनती, तुझसे कितनी बार कहा है, घर के काम सिख ले। देख सावन का महीना है चल साड़ी पहन ले मंदिर चलते हैं, आज एक दिन उपवास रखेगी तो क्या फर्क पड़ेगा ! आगे जाकर ससुराल में क्या करेगी ? तेरी सास क्या कहेगी ?”
” मां प्लीज़, मुझे इन बंधनों में मत डालो। मुझे पसंद नहीं। मुझे सिर्फ फोटोग्राफी पसंद है और मै वही करूंगी । मुझसे ये घरेलू एटीट्यूड नहीं संभलेगा और कौन सी किताब में लिखा है कि भोले बाबा साड़ी पहनने से और व्रत रखने से प्रसन्न होंगे !”
” और शादी ! “
” नहीं करनी ! मैं अपना समय व्यर्थ नहीं गंवाना चाहती । “
” तो क्या मैंने अपना समय व्यर्थ ही गंवा दिया है !” मां ने डांटते हुए कहा।
” अरे भाग्यवान व्यर्थ की बहस छोड़ो, जब जब जो जो होना है, तब तब सो सो होता है। इसलिए चिंता छोड़ो ।”
मीनू के पापा ने समझाया ।तब मीनू को बड़े प्यार से मां ने सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ” मीनू तुझे पता है जब तू छोटी थी, तू मेरी साड़ी पहन कर पूरा मुहल्ला घुमती थी। आज ऐसा क्या हुआ कि मेरी प्यारी गुड़िया के विचार ही बदल गए ? “
” ओह मां, आई वोस सच अ स्टूपिड धेट टाइम । सो प्लीज़ लीव मी। मैं आपके जैसी जिंदगी नहीं जी सकती । मैं आपके जैसी नहीं बनना चाहती।” चिल्लाती हुई नाराज़ मीनू बाहर चली जाती है। यह सब घटना क्रम मानों मीनू की आंखों के सामने चल रहा हो। वो जाती हुई मीनू को रोकना चाहती थी डांटना चाहती थी। वो चाहती थी कि उसकी वह गलती को सुधार सके। लेकिन अब बहुत देर हो चुकी थी ।
आज फिर सावन की वही बौछार थी और मीनू थी बस मां नहीं थी, बाहर पानी बरस रहा था और अंदर मां की साड़ी को सीने से लगा कर मीनू बहुत ज़ोर से रोई, ” मां … मां, मुझे माफ कर दो “
आंखों से जैसे आंसुओं की धार बह निकली, किसी का भी हृदय डोल जाए इतना तीव्र क्रंदन था। कौन चूप करवाता, मां तो नहीं थी वहां। मीनू की शादी भी नहीं हुई थी। मीनू अकेली थी, उसकी कामयाबी के साथ ।कभी कभी, ख्वाहिश इतनी बड़ी हो जाती है कि हमारे अपने भी कब पीछे छूट गए, पता ही नहीं चलता। फिर कामयाबी के शिखर पर अकेले जश्न मनाना पागल पन ही लगता है। कामयाबी की असली खुशी तो अपनों के साथ से ही मिलती है। जिंदगी दूबारा मौका नहीं देगी, रिश्तों को संभाल कर रखिएगा ।
लेख पढ़ने के लिए धन्यवाद दोस्तों। आपके विचारों का स्वागत है।
आपकी अपनी
(deep)
