कविता
मजदूर हां मैं मजदूर हूं।
श्रम करने में, मशहूर हूं।
क्या करूं मैं, भी मजबूर हूं।
मैं विलासिता से, दूर हूं।
मैं खून पसीना, बहाता हूं।
मैं ऊंचे भवन, बनाता हूं।
पर उनमें न रह पाता हूं।
मेहनत की,रोटी खाता हूं।
हर जगह,सताया जाता हूं।
न अपना दर्द,कह पाता हूं।
मालिक की बात सह जाता हूं ।
फिर भी, बेईमान कहाता हूं।
हमें ,लोग गरीब ,भी कहते हैं।
हम तानें,सहते रहते हैं।
ये विकास, हमारी, बदौलत है ।
न पास हमारे, दौलत है।
मैं बहुत अधिक, श्रम करता हूं।
हर कठिनाई से,गुजरता हूं।
कभी बेईमानी, न करता हूं ।
थोड़े में ,गुजारा करता हूं ।
हम रोज, कमाते, खाते हैं ।
बच्चों को,पढ़ा न पाते हैं।
वो भैया बहनों को, खिलाते हैं।
किस्मत हमने ,ऐसी पाई ।
हम जोड़ते हैं, पाई पाई।
घर में रहते,बाबा,माई ।
सेवा उनकी न कर पाई ।
मन में, जो है,किससे बोलें ।
हम दिल के,राज, किससे खोलें ।
सदियों से मुझे, सताया गया।
कभी ताजमहल ,बनवाया गया।
मैं रोता रहा,न हंसाया गया ।
र्निबल को, सदा, रुलाया गया।
कभी अंग भंग,कर दिए गए।
किये अत्याचार,हर रोज़ नए।
अब के बलराम ,भरोसे हम ।
हम करते श्रम,जब तक है,दम।
बलराम यादव देवरा छतरपुर

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One thought on “मजदूर दिवस”

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