संसार में हमें लाने वाले हमारे जनक होते हैं जो हमें दुनिया दिखाते हैं ।लेकिन इस मृत्युलोक में जीवन मिलने के बाद हम आगे बढ़ते हैं। तब शिक्षक हमारे जीवन को बनाते हैं ।और कभी जब जीवन पर संकट आता है तो चिकित्सक हमारे जीवन को बचाते हैं।
 अर्थात -शिक्षा से जीवन सुधरता है व चिकित्सा से जीवन बचता हैं। और यह हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा है।
 वैसे तो वर्तमान में हर व्यवसाय का व्यवसायीकरण हुआ है ।परंतु वर्तमान में हमारे जीवन के अभिन्न अंग शिक्षा व स्वास्थ्य जो व्यक्ति की मूलभूत सुविधाओं में शामिल है क्या इनका भी व्यवसायीकरण हुआ है ।और अगर हुआ है तो किस हद तक ।
शिक्षा –शिक्षा जिसकी शुरुआत परिवार से प्रारंभ हो जाती है और मां को जीवन का पहला गुरु माना गया है। पहले गुरु से प्रारंभ होने वाली हमारी शिक्षा विद्यालयों से कॉलेज तक का सफर करते हुए आगे हमारी मंजिल तक पहुंचाती है ।यही शिक्षा जो जीवन के संघर्षों से लड़ना सिखाती है।क्योंकि  शिक्षा का वास्तविक अर्थ विद्यालय स्तर पर पास होना नहीं है ,बल्कि शिक्षा का अर्थ होता है व्यक्ति का संपूर्ण चारित्रिक विकास।
 ताकि जीवन में आने वाले अनचाहेसंघर्षों का सामना कर आगे बढ़ता रहे। यही शिक्षा आज से20- 25 वर्ष पूर्व तक अधिकतर  सरकारी विद्यालयों में ही प्राप्त होती थी। उस समय शिक्षा का जो स्तर  था वह हमें आज नजर नहीं आता है। तब ना तो माता-पिता नंबर के पीछे भागते थे।ना  खुद बच्चा ही ।
यहां तक कि अगर बच्चा क ख ग ….नहीं सीख पाता था तो वह पहली जमात में  हीं रोक भी दिया जाता था। ताकि जब भी आगे बढ़े कुछ सीख कर बड़े ,उस समय भले ही डिजिटल जमाना नहीं होता था। लेकिन गुरु जी छड़ी चौक डस्टर बोर्डसे ही वह उत्तम शिक्षा दे जाते थे ,जो शायद वर्तमान में संभव नहीं है। इसका एक कारण शिक्षा का व्यवसायीकरण भी है जिसमें कई प्रतिष्ठित संस्थान कई गुना दामों  में बच्चों का एडमिशन लेते हैं ।अपनी संस्था की साख को बचाने के लिए बच्चों के जीवन से खिलवाड़ भी करते हैं ।
उनके माता-पिता को वास्तविकता से अनजान रख अच्छे नंबर की मार्कशीट बताना जिसे देख माता-पिता व बच्चे दोनों खुश हो जाते हैं ।लेकिन हकीकत से अनजान रहते हैं ।यहां हम यह नहीं कर सकते हैं कि सभी जगह ऐसा होता है या इसके लिए केवल स्कूल प्रशासन ही जिम्मेदार है। बल्कि वह माता-पिता भी उतने ही जिम्मेदार होते हैं जो अपने बच्चों को जानते हुए भी उसकी वास्तविकता से अंजान बने रहते हैं ।जबकि अपने बच्चे की योग्यता देखते हुए निर्णय लेना चाहिए। लेकिन नंबर के पीछे भागते बच्चे ,पेरेंट्स इन सबसे अनजान ही बने रहना चाहते हैं।
 एक सच यह भी है कि शिक्षक छात्र को प्यार व डांट से पढ़ाता है। जैसे कुम्हार मटके को घड़ता है। लेकिन सरकारी आदेशों के तहत छात्रों को हाथ भी नहीं लगा सकते ,तो सिर्फ प्यार से छात्र की समझाइश  पूरी नहीं होती है  ।ये उसी तरह जैसे किसी डॉक्टर से कह  दिया जाए कि आप सिर्फ पर्चे पर दवा लिख दो और मरीज को सही कर दो। जबकि  हम सभी जानते हैं यह लिखने भर से मरीज ठीक नहीं होता है। कभी-कभी सर्जरी जैसे उपाय भी करने होते हैं तो एक बच्चा सिर्फ बोलने से या कहने मात्र से नहीं सुधरता है।उच्च प्रतिष्ठानों में पढ़ने वाले बच्चों के अंदर अहंकार की भावना और पनपती है कि वह उच्च शिक्षण संस्थाओं में पढ़ते हैं। और ऐसे बच्चे अपने शिक्षकों का अपमान करने से भी नहीं चूकते हैं।और कही न कहीं इसका दोष आधुनिक शिक्षा प्रणाली को भी जाता है जिसका की  वर्तमान में किसी हद तक व्यवसायीकरण हो चुका है ।जहाँ पर छात्र, छात्र न होकर ग्राहक होता हैं।जिसे लुभाने के के लिए पूरे प्रयास किए जाते हैं ।
अगर शिक्षा का यही हश्न रहा तो जो शिक्षा मानव का सर्वांगीण विकास करती है।वहीगर्त में भी ले जा सकती हैं।आज भी कई शिक्षक छात्रों के हित की सोचते हैं ।उन्हें आगे बढ़ते देखना चाहते हैं। लेकिन सरकार के नियमों के कारण उनके हाथ बन जाते हैं और वह नहीं कर पाते हैं जो वह करना चाहते हैं ।आज की शिक्षा शिक्षा नीति जो व्यवसाय का रूप धारण कर चुकी है के लिए यह व्यंग्य बिल्कुल सटीक बैठता  है कि “किसी बच्चे का अपहरण कर फिरौती मांगने से एक स्कूल खोला जाए”।
 चिकित्सा— चिकित्सा क्षेत्र जहां पर कार्यरत रहने वाले लोगों को नव जीवन देते हैं ।निरोग करते हैं जिंदगियां बचाते हैं। तो जीवन में जितना महत्व जीवन देने वाले जीवन बनाने वाले का होता है उतना ही महत्व जीवन को बचाने वाले का होता है ।और इनका महत्व सबसे ज्यादा होता है क्योंकि मारने वाले से बचाने वाला ज्यादा महत्व रखता है। तो जो हमें बचाता है वह भगवान होता है ,और भगवान का किया और कोई भी फैसला गलत नहीं होता है ।अगर कुछ गलत भी होता हो तो वह हमारे कर्मों का ही फल होता है। लेकिन वर्तमान में पृथ्वी का भगवान कहे जाने वाले चिकित्सक क्या सचमुच में भगवान का रूप निभाते हैं या सिर्फ पैसा कमाते कभी-कभी तो डॉक्टर पैसा कमाने वाली मशीन बन जाते हैं ।कई ऐसी घटनाएं हमारे आसपास के चिकित्सकों में घटित हो जाती है कि भगवान कहे जाने वाले डॉक्टर से भरोसा उठ जाता है ।जो पैसों के बिना मरीज को हाथ नहीं लगाते हैं चाहे वह उनके सामने ही तड़प रहा हो ।ऐसे।सवेंदना हीन व्यक्ति को भगवान नहीं कहा जा सकता है ।बल्कि वो इंसान कहने लायक भी नहीं रहता है, जो कागज के टुकड़ों के लिए अपनी मानवता वह भावनाओं को मार देता है।
 सरकारी अस्पतालों में जाते है तो वहाँ अव्यवस्थाओं का बोलबाला देखने को मिलता है।सरकारी प्रक्रिया इतनी जटिल होती है उचित इलाज तक पहुँचते-पहुँचते मरीज गंभीर हो जाता है या जीवन से  ही धो बैठता  है ।
सरकारी अस्पतालों में कार्यरत कर्मचारी तक ठीक से बात तक नहीं करते हैं।जिससे वहां इलाज करवाने वालों के साथ -साथ परिजन भी परेशान होते हैं ।और अगर हम निजी अस्पतालों का रुख करते हैं तो वहां इलाज समय पर होता है लेकिन उनके लिए मरीज कई बार एक ग्राहक के जैसा होता हैं। जिससे जितना चाहो वैसा बनाया जा सकता है ।
अनावश्यक दवाइयां जाँच परिजनों पर भार होती हैं।
एक बड़े अस्पताल में एक मरे हुए व्यक्ति को वेंटिलेटर पर 4-5 दिन तक रख लिया जाता है इससे ज्यादा सवेंदनहीनता और क्या हो सकती है?
 दूसरा उदाहरण मरीज को हाथ तक नहीं लगाया जाता है जब तक कि पैसे जमा नही होते हैं।और जब तक पैसे जमा होते हैं मरीज ईश्वर को प्यार हो जाता है । जान बचाने वाले वहीं खड़े होते हैं मरीज को तड़पता हुआ भी देखते  है लेकिन कोई आगे नहीं आता है ।
ऐसे कई दृश्य हमारी आंखों के सामने दृश्यमान होते हैं, तो कहीं ना कहीं धरती के भगवान पर से भरोसा उठता सा लगता है।और लगता  जीवन देने वाले दौलत के नशे में रहते हैं। और ऐसे हालातों में हमें लगता है कि जो हमारी मूलभूत आवश्यकता है,वो यदि पैसा हुआ तो प्राप्त होगी नहीं है तो नहीं होगी ।
तो क्या यह हालात यह बयां नहीं करते हैं कि कहीं ना कहीं चिकित्सा का व्यवसायीकरण हो चुका है।
 लेकिन जैसे के दो पहलू होते हैं।वैसे ही शिक्षा व स्वास्थ्य से जुड़ी संस्थाओं के दो पहलू होते हैं।
शिक्षा जो जीवन में अंधेरा दूर कर रोशनी भरती हैं 
कई निजी शिक्षण संस्थाएँ कर्मचारियों को रोजगार देते हैं ।जो प्रतिभावान होते हैं उन्हें मुफ्त  शिक्षण की सुविधाएं देती है ।छात्रों के हित के लिए कार्य करती है ।और अपने यहां कार्यरत कर्मचारियों की सुविधाओं का ध्यान रखती हैं।इन सबके  लिए कुछ शुल्क तो बनता है। आखिर किसी भी संस्था को चलाने के लिए पैसों की जरूरत होती है और उसके लिए शुल्क जरूरी होता है ।अतः शिक्षा का अन्य व्यवसायों की तरह व्यवसायीकरण जरूर हुआ है, लेकिन आज भी स्कूल कई  बच्चों की जिंदगी  बनाते हैं ।और शिक्षक अपने लगन व मेहनत से उन्हें निखारते हैं ।
चिकित्सा भी ऐसा क्षेत्र है जहां बहुत से चिकित्सक अपने तन मन से रोगी का उपचार करते हैं इनके लिए दिन-रात सब एक समान होते हैं। कोई सा भी मौसम हो ये अपनी सेवाएं लगातार देते हैं ।गंभीर से गंभीर मरीज  को अपने इलाज के दौरान ठीक करते हैं। चिकित्सक अपने जीवन को सेवा के लिए समर्पित कर देते हैं। हमारे जीवन में ऐसे भी डॉक्टर  आते हैं जो अपने पेशे में पूर्ण ईमानदारी के साथ मरीज का इलाज करते हैं। मानवता स्नेह दया आदि गुणों से परिपूर्ण होते हैं। उनके जीवन का मकसद पैसा नहीं सेवा होता है। मेरे जीवन के अनुभव में डॉक्टर अपना भोजन छोड़ इलाज के लिए आते हैं और तो और जब कुछ डॉक्टर गर्भावस्था में मेरी व शिशु दोनों की जान को  खतरा बताया और कोई बचने की उम्मीद नहीं थी ऐसे में चिकित्सक देश दीपक के कारण आज मेरा बच्चा संसार में हैं।तो भले हीआज हर व्यवसाय  की तरहचिकित्सा काभी व्यवसायीकरण हुआ हो लेकिन आज भी बहुत से डॉक्टर्स  मानवता की सेवा में लगेहैं। मेरे जीवन को नया मोड़ देने वाले भी चिकित्सक ही हैं जिनके कारण आज मैं इस मुकाम पर हूँ और इसके लिए मैं अंतर्मन से डॉक्टर राकेश उपाध्याय की आभारी  हूँ।
अतः स्वास्थ्य विभाग से जुड़ेकई लोग लोगों की निःस्वार्थ सेवा करते हैं और उन्हें स्वस्थ देख खुश होते हैं ।
तो हमें शिक्षा हो या स्वास्थ्य जिनका  कुछ अंशतक व्यवसायीकरण तो हुआ है लेकिन आज भी जीवन बनाने वाले व जीवन देने वाले दोनों का महत्व था ,है और रहेगा ।और यह हमारे जीवन के अभिन्न अंग रहेगे क्योंकि इनके बिना जीवन संभव नहीं हैं।
तो हमें समाज की नई पीढ़ी के जीवन को गरिमामय बनाने हेतु प्रयासरत रहने वाले शिक्षकों विद्यालयों व जीवन को स्वस्थ निरोगी रखने वाले चिकित्सकों दोनों के प्रति पूर्ण गौरवान्वित होना चाहिए ।क्योंकि इन दोनों की वजह से ही हमें अक्षय स्वस्थ जीवन प्राप्त होता हैं।
गरिमा राकेश’ गर्विता ‘
कोटा राजस्थान भारत
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