जहाँ हमने आँखे खोलीं, हँसना- रोना, खेलना-कूदना, पढ़ना-लिखना और जीवन जीने का सलीका सीखा वह घर-परिवार, पास-पड़ोस शहर बाजार सब अपना ही तो होता है। बढ़ती उम्र के साथ-साथ  समयानुकूल अवसर आने पर किसी न किसी कारण उस अपने शहर को एक दिन छोड़कर जाना ही होता है।कारण कुछ भी हो सकता है जैसे कि रोज़ी-रोटी के फेर में, वैवाहिक गठबंधन हो या फिर पढ़ाई-लिखाई (उच्च शिक्षा) और कैरियर अंततः स्थानांतरण भी नौकरी में शहर बदलने का बहुत बड़ा कारण होता है।स्वाभाविक सी बात है कि इंसान जब कहीं कुछ समय तक रह लेता है और व्यवस्थित हो जाता है तो वहाँ से एक अपनत्व की भावना हो जाती है।एक लगाव हो जाता है। उस स्थान/ शहर या लोगों को छोड़कर जाने की इच्छा नहीं होती परन्तु मनुष्य परिस्थितियों का दास है, उसे जाना ही होता है और वह जाता है। तदनंतर कुछ समय बाद वह नई जगह,लोग, पास-पड़ोस और बाजार-हाट सब अपने हो जाते हैं। यही परिवर्तन एवं सामंजस्य ही तो जीवन की असली कला है।
धन्यवाद!
राम राम जय श्रीराम!
लेखिका – सुषमा श्रीवास्तव, मौलिक विचार  सर्वाधिकार सुरक्षित, रुद्रपुर, उत्तराखंड।
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