सूर्योदय की रक्तिम आभा से आभासित हो उठती धरा।
ऊर्जस्वित हो नभचर-जलचर कर देते गुंजित अपने कलरव को।
चल पड़ता है भूचर भी नित, दैनिक क्रिया सम्पन्न करने को।
समग्र दिन की कार्ययोजना ले जाती है, उत्साहित कर्म-पथ को।
क्या अद्भुत लीला है सर्जक की,
सब मन्त्रमुग्ध से सक्रिय रखते स्वयं को।
देने को भावनाओं को सजीव पंख,
मिलता है उन्मुक्त आकाश सबको।
लो जा रहा रक्तवर्णी सूर्य समेटे अपने कर को,
न कोई दुःख है न कोई निराशा,
कल पुनश्च आने की अटल है आशा।
है नियम शाश्वत आने औ जाने का,
ठहराव है नहीं कैसे भी वक्त का।
रवि देता सीख समभाव जीने का,
अंशु पढ़ाता है पाठ मृदु-धैर्य का।
ऐसे ही सृष्टि का हर पहलू हमें सिखाता है,
औ दे जाता है तजुर्बा जीवन जीने का।
बस कर लो हौसला दिखते क्षितिज को छूने का,
दिन वह दूर नहीं जब, हर शीर्ष तुम्हारा होगा।
             रचयिता –
                सुषमा श्रीवास्तव
                   मौलिक कृति,रुद्रपुर, उत्तराखंड।

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