ये स्मृतियां सुःखद”ये स्मृतियां “
ये स्मृतियां सुःखद या दुःखद!
जमीं होती परत दर परत!
मन की भित्तियों पर ।
जैसे सेल्फ पर लगी किताबें ,,
खङी रहती हैं अथक!
      ✍️”पाम”
इन्हें हिलाना डुलाना होता है,,
पङी धूल हटानी होती है।
तब ये सज जाती हैं बिल्कुल नई सी,,
और आंखों को सुकून दे जाती हैं।
मन की दिवारों की धूलें
इतनी आसानी से नहीं जातीं।
पङी रहती हैं किसी कोने में
हमारे व्यक्तित्व को खोखला करते,,
दीमक की तरह अन्दर ही अन्दर सबकुछ रूग्ण करते,,
जब तलक सब गिर नहीं जाता…
भरभराकर,,अचानक!!
पर अचानक तो कुछ नहीं होता!
दिखता जरूर है।
कितना कुछ ढोता है मन…
मान,,अपमान,,प्रतिष्ठा,,सम्मान।
सिर्फ नेह के बन्धन नहीं दिखते,,
आज अभी जो हमारी मुट्ठी में है
नहीं दिखता..
       ✍️”पाम “
हम देखते रहते बीता कल..
अपने ह्रदय की मिट्टी पर ..
राख से कुछ उगाने का प्रयत्न करते!
या भविष्य के त्रिशंकु की तरह
कुछ तो अधर में लटकाते रहते!
मन के दरवाजे पर चिटकनी लगा कर
कुछ भी सुनना नहीं चाहते!
बंद कर पङे रहते
रौशनी अवरूद्ध कर!
पर अंधकार में भी चीजें पनपती हैं
निराशा… नफरत…फफूंद…अवसाद…
और फैलती जाती हैं
रौशनी से कई गुणा ज्यादा रफ्तार से,,
रौशनी में भी पनपती हैं…
विश्वास….हौसला…ओज…पराक्रम…उल्लास।
निर्णय तो हमारा ही होता है
हम किसे पल्लवित होना देखना चाहते…
किसे अपने मन के दराजों में नई कर सजाना चाहते,,
ये स्मृतियां सुःखद या दुःखद!
जमीं होती परत दर परत!
मन की भित्तियों पर ।
जैसे सेल्फ पर लगी किताबें ,,
खङी होती हैं वर्षों से अथक!
किसे अपने मन के दराजों में नई कर सजाना चाहते।
किसका फैलाव चाहते….
                 ✍️डाॅ पल्लवीकुमारी”पाम”
                      अनिसाबाद,पटना (बिहार)
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