बीत गयी है तपिश जेठ की,
रिमझिम सावन आया है।
मदमस्त मयूरा नाच रहे अब,
कोयल ने गीत सुनाया है।
दादुर झींगुर की झांय-झांय,
वो मीठी तान पपीहे की।
इकरार किया जब अम्बर ने,
भींगी चुनरिया अवनी की।
घनन-घनन घन मेघ गरजते,
चंचल दामिनि लुकती छिपती।
बूंदों की उज्ज्वल लड़ियों से,
उल्लासित हो धरा महकती।
मिट्टी से छोड़ी सौंधी खुशबू,
हरिताभ हुई फसलें झूमी।
खिले पुष्प महकी है लताएं,
मनभावन दृश्य प्रकृति झूमी।
धुंधलाया सा था जो अम्बर,
वो स्वच्छ और नीलवर्ण हुआ।
स्मृति पटल के धूमिल चित्रों ने,
मानो पुनरावतार लिया।
रक्त पुष्प से महका उपवन,
आशिक भँवरे को गीत मिला हो।
विरह तपिश से आकुल मन को,
जैसे कोई मनमीत मिला हो।
शीला द्विवेदी “अक्षरा”
उत्तर प्रदेश “उरई”