★★★★★★★★★★★★★
उस बाग में…, हरे पत्तों के ऊपर..
वह चिपचिपा..सा..नन्हे नन्हे अंड समुहों जैसा..
देखकर मैंने सोचा था ..,ये क्या है…,
…फिर उनसे एक रेंगते..से जीव का उदय होना…
…उन हरे पत्तों को ही भोजन बना लेना
        ..उन्ही में घर बसा लेना……,
….देखकर मैंने सोचा था..,ये क्या है….,
कुछ समय  अंतराल में उस रेंगते जीव का ..
बढ़ते रहना…और  कठोर हो जाना…
फिर  एक रेशमनुमा खोल  में खुद को परिणत कर लेना..
..तब भी मैंने सोचाथा..,ये क्या है…
कुछ हफ्तों में अपनी आँखों के सामने..
उस बदरंग से खोल को फटते देख..
और उसमें से रँगबिरँगी तितली को उदित होता  देख
मैं चौंक गया…था…क्या ये तपस्या है…
उस ककून का..खुद को बदल लेने की जिद..
..मैंने पूछा था..,कुदरत से..आखिर तुम क्या हो!!
*****
स्वरचित….
सीमा प्रियदर्शिनी सहाय
©®
Spread the love

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *