सूख कर गिरते हैं पेंडों से,
पत्ते जब कदमों में बिखर जाते हैं
समझो, पतझड़ का मौसम आता है,
नई कोंपल खिलती हैं,
फूल हवा महकाते हैं
कहते हैं, बसंत तब खिलता है!
दूर मिलने का आभास लिए
धरती गगन मिलते हैं जहाँ
वो “क्षितिज” कहलाता हैं
पर, तेरा मेरा मिलना क्या है…?
यह तो सिर्फ़ एक अहसास है,
सूखे से मरुस्थल में किसी शांत से
पोखर पर से गुज़रती सीली सी हवा सा एहसास!
गहरी सी नदी के दो जुदा से तीर,
जिस पर खड़े एक दूजे को ताकते हैं हम,
पलकों के बांध इक बाढ को रोके हैं
नज़रों के पुल मन से मन मिलन करवाता है,
समय की धारा बहती है और
इस इस धारा में दूर-दूर बहते हुए भी पास होने का एहसास!
एहसास तुमसे मुझ तक आती हुई, वो एक पगडंडी है,
जिस के किनारों पर चल रहे हैं मैं और तुम,
तुम और मैं साथ नहीं भी हैं मगर हर कदम पर साथ हैं,
यूं ही साथ-साथ चलते जाना है- क्षितिज के पार तक, उस मोड तक– जिसके आगे केवल शून्य है .
शालिनी अग्रवाल
जलंधर