मैं शून्य हूँ

मुझमें समाहित सम्पूर्ण विश्व
साकार हो जाता हूँ मैं
जब अंक में मिल जाता हूँ.. 
समझा अरे! 
अस्तित्व हीन .. 
मैं नहीं हूँ अब विहीन.. 
मर्म मेरे जानते 
जो हैं हमे पहचानते.. 
तोड़ने को बेडिया
तैयार हैं.. 
मेरे बिना छाया अंधकार है.. 
क्षितिज में है मेरा पहरा.. 
राज मेरा और गहरा.. 
चंद्र -सूरज को मिला.. 
समरुप यह आकार है.. 
शून्य सा जीवन सुलभ 
होता यहाँ.. 
“श्री ” “मती” की दृष्टि पड जाती जहाँ.. 
घुमता ब्रम्हांड में मैं 
ढुंढता.. 
मैं ही हूँ … 
करतृत्व निरंकार का.. 
मौन में खुद को समेटे.. 
चल रहा..
 है अनंत 
राह इस संसार का.. 
मैं अविष्कार आर्यभट्ट का.. 
परितोषक भी बन जाता हूँ.. 
है नहीं क्षम्य होता है वो.. 
जो दुरूपयोग कर दे मेरा.. 
भर देता मेरा पेट.. 
समाया सृष्टि सृजन का सार है.. 
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