दैव ने कैसा खेल रचाया !
कहीं माया तो कहीं जीर्ण काया ।
कहीं जोड़- जोड़ महल बनाया ।
कहीं क्षुधा से तड़पाया ।
हाथ फैलाना किसको कब भाया ?
क्यों न ऐसा संसार बसाएँ ?
मिल बाँट कर हम सब खाएँ ।
कम को थोड़ा मिल जाएगा ।
ज्यादा का क्या कम हो जाएगा ?
कोई हाथ कभी न फैलाएगा ।
आत्मिक सुख का होगा अहसास ।
हँसते चेहरे होंगे आसपास ।
सभी का इससे होगा उद्धार ।
कैसा सुन्दर होगा वह संसार !
मेरे सपनों का संसार ।
मीरा सक्सेना माध्वी
नई दिल्ली स्वरचित , मौलिक एवं अप्रकाशित