🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁

एक ज़माना था वो भी
ज़ब धरा से आसमान तक
प्रकृति मे हर तरफ सुंदरता निखरी रहती थीं
हरे भरे बाग़ बगीचे
फूलो से भरी गुलशन मे खुशबू हज़ार होते थे
बहते हुए वो नदिया नाल
जल से परिपूर्ण खेतो की फ़सल होते थे
पलती थीं ज़िन्दगी खुशियों मे किसानो की
ना कोई शिकायत खुदा से किसी के
बस लबों पे सबके खुशी भरी दुवाएँ होती थीं
जाने कैसा कहर बरसा आसमान से
या जहर घुल गया इन प्रकृति के हवाओ मे
जो अब दिखता नहीं वो नज़ारा ज़मीं के
जो बसरो पहले हरियालियो से रंगी रहती थीं
नहीं रहता अब पुष्ट कोई भी फल बृष की
न फूलो मे वो दिलकश महक शामिल रही 
कहीं पे पनियों का सैलाब का कहर
तो कहीं ज़मीं तड़प रही एक बून्द को भी
कहीं होता है जलसा हज़ार पकवानो की
तो कयी दिनों से खाली है पेट गरीबो की
फटने लगती है धरती भी तड़प के
ज़ब उनके ही बच्चों के लहू से
उनकी आँचल रंग जाती है
नहीं रहा वो स्वछता बहते लहरों मे
अब कोई कद्र नहीं करता किसी के भावनाओ की
एक वक़्त होता था इसी ज़मीं के आँगन मे
ज़ब किनारो पे बैठे कवियों की सुरु गूँजता था
क्या है ये, किस दोष का प्रकोप बरस पढ़ा
जो धरती तो धरती आसमानो भी
अपने बेरंगी मे जैसे रंग डाला है 
सूखने लगी है पेड़ पौधे प्रकृति के इस तरह
जैसे बरसा है आसमान से विष की कहर
मिटने लगा है पहाड़ो व परवतो की सुंदरता
लगता है अब की दुनिया कोई खंडर जैसी 
फूलो के महक के जगह इस प्रकृति मे
फैला है प्रदूषण कोई जहर कड़वी बनकर
आए दिन दम तोड़ते है परिंदे उड़ते उड़ते
उजड़ने लगी है बाग़ बस बची है कुछ काँटे
जाने क्या होना है अब संसार की हकीकत
हर कोई जलने लगा भ्रष्टाचार के आग मे 
कितना फर्क है न अब की और उस बीते ज़माने मे
जो ज़िन्दगी ही बदल के रख दी इंसानों के
क्या कहे किसका नज़र लगा इस संसार को
जो प्रकृति तो समय की ढाल पे चलता है
पर यहाँ मन बदलने लगे इंसानों के भी
कभी अपनों के लिए जो
जान देने को आतुर थे ज़िन्दगी मे 
लेकिन ऐसा क्या हुआ जो
अब दिलचस्पी है अपनों की ही जान लेने मे
कहाँ गए वो अपनापन अपनों के बिच का
कहाँ खोगया वो समा खुशिया भरी त्यौहारो का
जिसके लिए तरस रही ज़िन्दगी
जहाँ एक बून्द प्यार के वास्ते भी 
वही लोग भुला बैठते है नैना को बीते ज़माने समझ के…!!
🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁
नैना…. ✍️✍️✍️
Spread the love

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *