पत्र लिखा एक फौजी ने,
अपने घर को भेज दिया,
ख़त मिलने से पहले,
तिरंगे में लिपटा वह खुद पहुंचा,
  तिरंगे में लिपटे बेटे को,
मां देख रही स्तब्ध खड़ी,
  तभी डाकिया आ पहुंचा,
ख़त लेकर उसके बेटे का,
डाकिया देख घर का मंज़र,
सोच रहा मन ही मन में,
उस ख़त को कैसे दूं अब मैं,
इस फौजी की माता को,
  फिर आंखों में आसूं भरकर,
ख़त उसने लिया निकाल,
   नतमस्तक हो माता के सम्मुख,
फौजी का ख़त दिया पकड़ा,
  मां ने ख़त को हाथ में लेकर,
जब देखा बेटे की ओर,
   आंखों में आसूं भरे हुए थे,
चेहरे पर थी गर्विली मुस्कान,
ख़त खोला और लगी बांचने,
    बेटे ने जो भेजा था पैगाम,
मां मैं ख़त लिख रहा हूं तुमको,
  तुम सब इसको पढ़ लेना,
  मां जब मैंने वर्दी पहनी,
तब तुमने मुझसे कहा था कुछ,
वह सब मैं फिर दोहराता हूं,
    यह मातृभूमि भी मां जैसी,
इस पर आंच ना आने पाए,
मां का उज्जवल यह आंचल,
दुश्मन के हाथों लगकर मैला न होने पाएं,
  मां मैं तेरे वचनों को कभी भूल न पाऊंगा,
       मां की रक्षा करते, हुए उसके आंचल में छुप जाऊंगा,
   बाबा तेरी बातें मुझको देश प्रेम सिखाती हैं,
तुमने मुझसे यही कहा था,
जब तुम घर आना बेटे,
तो साथ में विजय पताका लाना,
यदि विजय पताका फहरा न सको तो,
लिपट तिरंगे में घर कोआना,
   मेरी बहना ख़त को पढ़कर,
आंखों में आसूं न लाना,
राखी पर यदि आ ना सका मैं,
तो भी स्नेह के धांगे पास रहेंगे,
इस देश की हर बहनों के मुंख पर,
तेरे भाई का ही नाम रहेगा,
हम जैसे भाईयों के रहते,
अब कोई कर्णवती ज्वाला में न कूदेगी,
  मेरे बच्चों मुझको तुमसे भी कुछ कहना है,
यदि मैं लौटकर कर न आऊं,
तो भी तुम आंखों में आसूं न लाना,
मेरा अंतिम संस्कार कर,
तुम भी फौजी की वर्दी पहनकर ,
अपना फर्ज निभाना,
तुमको सरहद पर खड़े देखकर,
मैं आसमान से तुमको,
देख देखकर मुसकाऊंगा,
   मेरी दिल की धड़कन सुन, 
मुझे तुमसे भी कुछ कहना है,
  तुम हर पल मेरे साथ रहीं,
तेरी मांथे की बिंदियां,
बालों में महकता गज़रा,
तेरे कंगना की खनखन,
तेरे पायल की छम-छम,
हर पल मेरे साथ रही,
तुम ने मुझसे कुछ मांगा था,
तुमने कहा था मेरे प्रियतम,
इक मेरे मंगलसूत्र उतारने से,
यदि बहुतों का घर आबाद रहे,
तो यह सौदा मंहगा न होगा,
मैंने तेरी उस चाहत को,
अपनी चाहत बना लिया,
तुम सब मेरा ख़त पढ़कर,
आंखों में आसूं न लाना,
इक फौजी जब लिपट तिरंगे में,
अपने घर को आता,
तब देशवासियों के साथ,
उसके घर वालों का भी सीना,
गर्व से चौड़ा हो जाता है।।
डॉ कंचन शुक्ला
स्वरचित मौलिक
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