तुम ऐसा कैसे कर सकती हो,
छोड़कर हाथ मेरा गैरों की कैसे हो सकती हो।
जिन आँखों में कभी थी तस्वीर मेरी,
उन आँखों को तुम गैरों के ख्वाब सजा बैठी 
कैसे अपनी खुशियों के लिए अपने मन की  कर बैठीं,
तुम ऐसा कैसे कर सकती हो।
मर्यादाओं में रहना तो एक नारी का गौरव है,
त्याग दिया सहन शक्ति  में उसका वैभव है,
छोड़कर सारी लाज शर्म तुम न्याय मांगती बाहर चाहरदीवारी के ,ऐसा कैसे कर सकती हो।
अब जीने का तुम्हें अधिकार नहीं,
यहसब करना था तुमको अंगीकार नही,
जौहर की ज्वाला में जल जाती नारी तुम,
इस ज्वाला से तुम दूसरों को संलिप्त कैसे कर सकती हो
वाह वाह  हे पुरुष तुम आज क्यों धिक्कार उठे,
जो मैने मर्यादा छोड़ी तो तुम क्यों चीत्कार उठे,
जो मैने किया आज वो तुम युग युग से करते आए,कभी सीता का हरण , कभी द्रोपदी का चीरहरण करते आए,
तब न तुम्हारी मानवता शर्मसार ,
तब न तुम्हारे ह्रदय में चितकार हुई,
जब कभी मैने कहा तुम ऐसा कैसे कर सकते हो,
बस यही कहा था तुमने यही पुरुषजीवन का श्रंगार है,
पौरुष का आधार है।
युगों से सही तुम्हारी मनमानी ,हमने तो नही कहा तुमसे तुम ऐसा कैसे कर सकते हो
फिर आज क्यों हमारे थोड़े से अधिकार पा लेने पर,
एक मन माफिक जीवन जीने पर क्यों???
जो तुमने किया उसका लेश मात्र हमारे कर लेने पर क्यों??
तुम बार बार ऐसा कहते हो तुम ऐसा कैसे कर सकती हो।
अन्जू दीक्षित,
बदायूँ,उत्तर प्रदेश।
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