बातचीत तो बहुत लोगों के साथ होती है पर मैं आज माँ और गर्भस्थ शिशु के मध्य होने वाली बातचीत पर कुछ कहना चाहूंगी।
आज जब हम पाश्चात्य सभ्यता की ओर दौड़ रहे हैं ,हमारे लिए आवश्यक हो जाता है कि हम अपनी संस्कृति और संस्कारों को खोने न दें।
आधुनिक चिकित्सा विज्ञान परीक्षणों द्वारा यह सिद्ध कर चुका है कि गर्भस्थ शिशु माता के माध्यम से सुन-समझ सकता है तथा जीवन भर उसे याद रख सकता है।
इसे सिद्ध करने के लिए एक उदाहरण ही काफी है कि यदि सोनोग्राफी करते समय गर्भवती को सुई चुभोई जाए तो गर्भस्थ शिशु तड़प जाता है तथा रोने लगता है। इसे सोनोग्राफी के नतीजों में देखा जा सकता है।
हिन्दू धर्म में जिन 16 संस्कारों का उल्लेख किया गया है वे सभी वैज्ञानिक आधार पर खरे उतरते हैं। इनमें गर्भसंस्कार भी एक प्रमुख संस्कार मन गया है।अतः उन्हें व्यर्थ या ढकोसला समझने से पहले उसके महत्व को समझना आवश्यक है।
हरिद्वार के शांतिकुंज से संचालित गर्भसंस्कार को देश विदेश में अपनाया जा रहा है।
चिकित्सा विज्ञान यह स्वीकार कर चुका है कि गर्भस्थ शिशु किसी चैतन्य जीव की तरह व्यवहार करता है तथा वह सुनता और ग्रहण भी करता है। माता के गर्भ में आने के बाद से गर्भस्थ शिशु को संस्कारित किया जा सकता है तथा दिव्य संतान की प्राप्ति की जा सकती है।
महाभारत काल में अर्जुन द्वारा अपनी पत्नी सुभद्रा को चक्रव्यूह की जानकारी देने और अभिमन्यु द्वारा उसे ग्रहण करके सीखने की पौराणिक कथा मात्र एक उदाहरण है जिससे गर्भस्थ शिशु के सीखने की बात प्रामाणिक साबित होती है।
पौराणिक कथाओं में भक्त प्रहलाद जब गर्भ में थे तब उनकी मां को घर से निकाल दिया गया था। उस समय देवर्षि नारद मिले और अपने आश्रम में शरण दी। वहां नारायण-नारायण का अखंड जाप चल रहा था।भक्त प्रह्लाद भी प्रभु प्रेमी बने।
सभी धर्मों में यह बात किसी न किसी रूप में कही गई है। जैन धर्म में गर्भस्थ भगवान महावीर के गर्भस्थ जीवन के बारे में आचार्य भद्रबाहू स्वामीजी ने कल्पसूत्र नामक ग्रंथ में वर्णन किया है।
मातृत्व एक वरदान है तथा प्रत्येक गर्भवती एक तेजस्वी शिशु को जन्म देकर अपना जन्म सार्थक कर सकती है।
दुर्भाग्यवश इस संवेदनशील स्थिति को गर्भवती महिलाएँ, कुटुंब और समाज सभी नजरअंदाज कर रहे हैं। गर्भ में पल रहे शिशु के मस्तिष्क का विकास गर्भवती की भावनाएं, विचार, आहार एवं वातावरण पर निर्भर होता है।
डॉ.अरनाल्ड शिबेल (न्यूरोलॉजिस्ट) कहते हैं कि यदि गर्भवती आधे घंटे तक क्रोध या विलाप कर रही हो तो उस मध्य गर्भस्थ शिशु के मस्तिष्क का विकास रुक जाता है जिसका नतीजा गर्भस्थ शिशु कम बौद्धिक क्षमता के साथ जन्म लेता है। यह महत्वपूर्ण बात हम जानते ही नहीं हैं।
गर्भस्थ शिशु के दिमाग का विकास तीन से सात माह के बीच तेजी से होता है।दिमाग में ढाई से तीन लाख सेल्स प्रति मिनट बनते हैं।जिन्हें न्यूरॉन्स कहते हैं।मां की क्रियाशीलता से यह न्यूरॉन्स सक्रिय होते हैं।
यदि मस्तिष्क में न्यूरोन सेल्स की मात्रा अधिक है तो स्वाभाविक रूप से शिशु के बौद्धिक कार्यकलाप अन्य शिशुओं की अपेक्षा बेहतर होते हैं।
गर्भवती के विचार, भावनाएं, जीवन की ओर देखने का दृष्टिकोण, तर्क आदि गर्भस्थ शिशु के मस्तिष्क में संग्रहीत होता जाता है। परिणामतः जब वह इस जगत में आता है तो अपना एक अनूठा व्यक्तित्व लेकर आता है।
इसी के कारण आनुवांशिक रूप से एक होते हुए भी दो भाइयों में भिन्नता दिखाई देती है क्योंकि प्रत्येक गर्भावस्था के समय गर्भवती की मनोदशा भिन्न होती है।
गर्भसंस्कार का अर्थ है गर्भधारणा से लेकर प्रसूति तक के 280 दिनों में घटने वाली हर घटना, गर्भवती के विचार, उसकी मनोदशा, गर्भस्थ शिशु से उसका संवाद, सुख, दुःख, डर, संघर्ष, विलाप, भोजन, दवाएं, ज्ञान, अज्ञान तथा धर्म और अधर्म जैसे सभी विचार आने वाले शिशु की मानसिकता पर छाए रहते हैं।
गर्भस्थ शिशु का मस्तिष्क अपनी माता के मस्तिष्क से जुड़ा होता है इसलिए उसके साथ स्वथ्य विचारों के साथ संवाद स्थापित करें। गर्भकाल में हमेशा अच्छे विचार ही अपने मन में ध्यान करें।
भले ही गर्भस्थ शिशु को भाषा का ज्ञान नहीं होता लेकिन वह माता के मस्तिष्क में आने वाली हर जानकारी का अर्थ ग्रहण कर सकता है। इसलिए गर्भ के शिशु के साथ अर्थपूर्ण बातें करें।
गर्भ के दौरान आदर्श संतुलित आहार ग्रहण करें ताकि उसके मस्तिष्क का अच्छा विकास हो सके। उसके मस्तिष्क में ज्यादा जानकारियां इकट्ठा हो सकें, स्मरण शक्ति तीक्ष्ण हो सके तथा त्वरित निर्णय लेने में सक्षम हो।
गर्भसंस्कार सही अर्थों में गर्भस्थ शिशु के साथ माता का स्वस्थ संवाद है।
गर्भावस्था के दौरान सिर्फ अपना और शिशु का ध्यान रखना ही काफी नहीं है, बल्कि शिशु के साथ आत्मीय संबंध बनाना भी जरूरी है।
विज्ञान भी कहता है कि गर्भ में पल रहा भ्रूण हर आवाज पर अपनी प्रतिक्रिया देता है। मां के शरीर से कुछ हार्मोंस निकलते हैं, जो शिशु को एक्टिव करते हैं। इसलिए, आप पूरे गर्भावस्था के दौरान सकारात्मक सोच बनाए रखें। यह प्रक्रिया गर्भ धारण के तीन महीने से आरम्भ हो कर प्रसव तक चलती है।।
माता और गर्भस्थ शिशु के मध्य इस आवश्यक सम्बन्ध को ऋषि मुनियों ने संस्कार का नाम दे कर महत्वपूर्ण बना दिया था।
रेनु सिंह