हमारा भारतीय इतिहास चिरकाल से भारतीय नारियों की विद्वता,शीलता, प्रत्युत्पन्नमति, आचरण और पुरुषों के साथ हर परिस्थिति में कंधे से कंधा मिलाकर चलने के साक्षी रहा है। जहाँ नारी की पूजा हो वहाँ की नारी अबला हो ही नहीं सकती। उसको किसी भी मायने में कमज़ोर समझा जाना तो कमबुद्धि/ दुर्बुद्धि का ही परिणाम हो सकता है। आज से ठीक 191 वर्ष पूर्व जन्म ऐसी ही अद्वितीय महिला की जानकारी लेकर मैं आज यहाँ उपस्थित हुई हूँ। 
    आज ही के दिन 1831 में देश की पहली महिला टीचर सावित्रीबाई फुले का जन्म महाराष्ट्र के सतारा के नायगांव में एक किसान परिवार में हुआ था। उन्होंने महिलाओं की स्थिति में सुधार लाने में अहम भूमिका निभाई और भारत में महिला शिक्षा की अगुआ बनीं।
सावित्रीबाई फुले को भारत की सबसे पहली आधुनिक नारीवादियों में से एक माना जाता है। 1840 में महज नौ साल की उम्र में सावित्रीबाई का विवाह 13 साल के ज्योतिराव फुले से हुआ था। उन्होंने बाल विवाह और सती प्रथा जैसी बुराइयों के खिलाफ आवाज उठाई।
    सावित्रीबाई फुले की पढ़ाई की बात करें तो सावित्रीबाई फुले जब स्कूल जाती थी तब लोग रास्ते में इनपर कीचड़ फेंक देते थे लेकिन समाज के इस घटिया सोच से उन्होंने हार नहीं मानी और वे हमेशा अपने बस्ते में 2 साड़ियाँ रखती थीं और कीचड़ में  गंदी हुई साड़ी को वो विद्यालय में जाकर बदल लेती थीं।
   एक दिन सावित्रीबाई फुले को उनके पिताजी ने अंग्रेजी किताब के पन्ने पलटते हुए देख लिया फिर उन्होंने कहा कि शिक्षा पर केवल उच्च जातियों का हक है दलितों और महिलाओं का शिक्षा लेना पाप है और उनकी किताबें फेंक दी। लेकिन सावित्रीबाई फुले उन किताबों को वापस लेकर आई और प्रण लिया कि आज से वे पढ़ना जरूर सीखेंगी।
   सावित्रीबाई फुले बालिकाओं के साथ होने वाले भेदभाव के खिलाफ वे कविता लिखती थीं। उन्होंने “काव्या फुले” और “भवन काशी सुबोध रत्नाकर” दो पुस्तकें थीं, जो दुनिया भर में प्रकाशित हुईं।
    अपने पति ज्योतिराव के साथ मिलकर उन्होंने महिला शिक्षा पर बहुत जोर दिया। देश में लड़कियों के लिए पहला स्कूल साावित्रीबाई और उनके पति ज्योतिराव ने 1848 में पुणे में खोला था। इसके बाद सावित्रीबाई और उनके पति ज्योतिराव ने मिलकर लड़कियों के लिए 17 और स्कूल खोले।
       सावित्रीबाई न केवल महिलाओं के अधिकारों के लिए ही काम नहीं किया, बल्कि वह समाज में व्याप्त भ्रष्ट जाति प्रथा के खिलाफ भी लड़ीं। जाति प्रथा को खत्म करने के अपने जुनून के तहत उन्होंने अछूतों के लिए अपने घर में एक कुआँ बनवाया था। सावित्रीबाई न केवल एक समाज सुधारक थीं, बल्कि वह एक दार्शनिक और कवयित्री भी थीं। उनकी कविताएं अधिकतर प्रकृति, शिक्षा और जाति प्रथा को खत्म करने पर केंद्रित होती थीं।
उन्होंने विधवाओं, रेप विक्टिम के लिए महत्त्वपूर्ण उठाए कदम।
प्रेग्नेंट रेप विक्टिम की दयनीय स्थिति को देखते हुए उन्होंने अपने पति के साथ मिलकर ऐसी पीड़िताओं के लिए ”बालहत्या प्रतिबंधक गृह” नाम से एक देखभाल केंद्र खोला। विधवाओं के दुखों को कम करने के लिए उन्होंने नाइयों के खिलाफ एक हड़ताल का नेतृत्व किया, ताकि वे विधवाओं का मुंडन न कर सकें, जो उस समय की एक आम प्रथा थी।
    बच्चों को पढ़ाई करने और स्कूल छोड़ने से रोकने के लिए उन्होंने एक अनोखा प्रयास किया। वह बच्चों को स्कूल जाने के लिए उन्हें वजीफा देती थीं। ऐसे वक्त में जब देश में जाति प्रथा अपने चरम पर थीं, तो उन्होंने अंतर्जातीय विवाह को बढ़ावा दिया। उन्होंने अपने पति के साथ मिलकर ‘सत्यशोधक समाज’ की स्थापना की, जो बिना पुजारी और दहेज के विवाह आयोजित करता था।
   1897 में पुणे में प्लेग फैला था और इसी महामारी की वजह से 66 वर्ष की उम्र में सावित्रीबाई फुले का 10 मार्च 1897 को पुणे में निधन हो गया था।
सन 1998 में भारतीय डाक विभाग ने इनके नाम से डाक एक टिकट जारी किया।
           ऐसी अद्भुत महिला शक्तियों से हमारा इतिहास सदा से गौरवान्वित रहा  है और रहेगा भी।
लेखिका –
       सुषमा श्रीवास्तव 
      ऊधम सिंह नगर, 
          उत्तराखंड।
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