याद है मुझे वो घने कोहरे की रात…
हाथों में हाथ लेकर तुमने कही थी जो बात।
चारों तरफ घना कोहरा था छाया…
उस कोहरे में मुझे आगे का कुछ नजर नहीं आया।
हवाओं की सरसराहट से मेरा मन बहुत घबराया था…
मैं बढ़ाती जा रही थी कदम मगर लगा जैसे मेरे पीछे कोई साया था।
अमावस की रात में इतना घना कोहरा…
मानो प्रकृति ने धुएं का काला लिवास था ओढ़ा।
मैं आई तो थी इस रास्ते पर तुम्हारे ही साथ…
मगर न जाने कब छूट गया मेरे हाथों से तुम्हारा हाथ।
उस भयंकर ठंड में मैं खुद में ही सिमटती जा रही थी…
घबराई-सी चारों तरफ तुम्हें ढूंढते हुए आगे बढ़ती जा रही थी।
अचानक मेरा पैर फिसला और मैं बीच सड़क पर ही गिर गई…
उस पल डर के मारे मेरी चीख तक निकल गई।
कोहनी में चोट लगी थी मेरे बमुश्किल संभलकर बैठ पाई थी…
फिर अचानक मुझे कुछ कदमों के चलने की आहट आई थी।
मैंने जल्दी से उठकर दौड़ना चाहा मगर उठ तक न पाई…
क्योंकि कोहनी के साथ-साथ मेरे पैरों में भी चोट थी आई।
हर क्षण प्रति क्षण कदमों की आहट तेज होती जा रही थी…
डर के मारे कांपने लगी थी मैं, मुंह से आवाज भी निकल नहीं पा रही थी।
जब महसूस किया कि अब मैं कुछ नहीं कर सकती 
तब आंखें बंद कर रोने न लगती, तो और क्या करती?
कदमों आहट बढ़ते-बढ़ते मेरे पास आकर रुक गई…
अब तो लगने लगा जैसे मानो मेरी सांस ही गले में अटक गई।
जब दो हाथों को मैंने अपने दोनों कंधों पर महसूस किया…
चेहरा सफेद पड़ गया और मेरा गला सूख गया।
फिर एक जानी-पहचानी सी आवाज आई…
अरे! अर्चू तुम यहां कैसे आई?
वो आवाज सुनकर मुझे मिला था बेहद सूकून…
क्योंकि वो कोई अजनबी नहीं था, तुम थे, मेरा इश्क मेरा जुनून।
देखकर मेरी सहमी हुई सी हालात तुमने झट से मुझे अपने गले से लगाया…
चूमकर मेरा माथा बड़े प्यार से मेरे बालों को सहलाया।
देखकर तुम्हें मैं भी छोटी बच्ची की तरह तुमसे लिपट गई…तुम बैठे रहे सड़क के किनारे पर और मैं तुम्हारे आगोश में सिमट गई।
उस वक्त कहा था तुमने मुझे, “तुम क्या हो मेरे लिए इस बात से अंजान हो तुम…
ख्याल रखा करो अपना पगली मेरी जान हो तुम❤️।”
वक्त के साथ धीरे-धीरे कोहरे की धुंध भी छंट गई…
तुम्हारे आगोश में एक कोहरे भरी रात कितनी आसानी से कट गई।
लेखिका :- रचना राठौर ✍️
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