वो पुराना मकान
अपनी जीर्णावस्था में भी
टकटकी बांधकर
ताक रहा है राहें
आस का दीपक जलाए
अपने बासिंदों का कर रहा इंतजार
लौटेंगे फिर से इक दिन
बनाएंगे इस मकान को फिर से घर
खिलखिलाऐंगी दीवारें फिर से
महकेगा घर आंगन
बच्चों की किलकारियों से गूंजेगा फिर से हर कोना
खिड़की का पलड़ा हवा संग कर रहा है बातें 
कैसे इंतजार में बीती इस मकान की हर रातें
कितना खुशहाल हुआ करता था वो परिवार 
जो इस मकान में रहा करता था
फिर न जाने क्यों मनमुटाव होता गया
रोकने की कोशिश नाकाम रही
सब धीरे-धीरे कर अलग होने लगे
मुझे छोड़ नया आशियां बनाने लगे
मेरा कसूर बस यही था 
मैं पुराना जो हो चला था
***
कविता झा’काव्या कवि’
सर्वाधिकार सुरक्षित
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