दूध के भगोनें को अपनी उंगलियों से चाटती 
नई बहू से छुप-छुपकर बूढ़ी दादी 
ना जाने कौनसी तृप्ति पाती थी,
जो शायद कभी भरी कटोरी खीर में भी ना  मिल पाती थी ।कभी खा लेती थी हाथ में ही रोटी रख,
 कढ़ाई से चिपकी खुरचन खाकर
 और फिर भरी आंखों से देखती आसमां को 
और करती शुकराना, ‘रब बहुत दिया तूने’।
कभी शायद 6 महीने बाद
दादाजी के पीछे साइकिल पर बैठ मेला देख
 बच्चों के लिए जलेबी बंधवा 
यूं खुश होती ना जाने कौन सी दुनिया घूम आई।
चंद साड़ियां जो खुद के ब्याह से शुरू होकर 
छुटके के फेरे तक चलती रही 
और गर्व से कहती है अक्सर
 6 ,6 साड़ियों से संदूक भरे हैं मेरे।
पर माथे की सलवटे बढ़ती रहती
 इस चिंता में घुलती जाती है बूढ़ी दादी,
कि टू बीएचके फ्लैट में अकेले रहकर 
12 लाख की गाड़ी में घूम कर
 25000 का मोबाइल लेकर 
₹800 का पिज्जा खाकर
 ₹300 की कॉफी पीकर 
₹600 की पिक्चर देखकर भी ,
उनकी नई पीढ़ी अक्सर 
खुद को कमतर समझती है औरों से  
और अक्सर खुद को घुनती रहती है,
 यह पीढ़ी कि हमारे पास है ही क्या 
ना जाने हम अपनी जिंदगी कब जी पाएंगे????????
स्वरचित सीमा कौशल यमुनानगर हरियाणा
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