क्योंकि मैं औरत हूं
जब-जब आगे बढ़ी इबारतें खिंच गई
जुल्म की सब नुमाइशें भिंच गई,
धूप में जल कर बहाया पसीना
पर मेरी तरक्की की कदर करी ना।
क्योंकि मैं औरत हूं
गमें दिल पर पड़ गए छाले
पर दिल जमाने के फिर भी रहे काले ,
क्यों खुशहाली से जलता है जमाना
गमों को कदम दर कदम पड़ता है निभाना ।
क्योंकि मैं औरत हूं
मेरी मोहब्बत को क्यों छीना जमाने
ना बनने दिए गमें दिल के अफसाने ,
कभी लैला कभी हीर को पड़ा मरना
दुनिया कौम मजहब से पड़ा था डरना।
क्योंकि मैं औरत हूं
आगे बढ़ती हूं तो मुझे बढ़ने दो
चाहती हूं कुछ करना तो मुझे करने दो,
मत बांधो मुझे बेड़ियों के बंधन में
नया इतिहास रच सकती हूं मैं तन मन से ।
जी हां ,मैं औरत हूं
स्वरचित सीमा कौशल यमुनानगर