मानव जीवन की मूलभूत महत्वपूर्ण तीन आवश्यकताएं हैं रोटी, कपड़ा और मकान आदि काल से ही मानव अपनी इन तीनों आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए हर संभव प्रयास करता है।
पाषाण युग से लेकर आधुनिक युग तक के मानव ने अपनी तीनों मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए निरंतर कर्म करता रहा है। पहले मनुष्य की आवश्यकताएं सीमित थीं और वह ईश्वरीय शक्ति में विश्वास रखता था इसलिए अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए ग़लत मार्ग को नहीं अपनाता था उसे ईश्वर का डर था सामाजिक प्रतिष्ठा के खंडित होने का डर था इसलिए वह सच्चाई और ईमानदारी से कार्य करते हुए अपनी जरूरतों को पूरा करता और उसी में संतुष्ट रहता था पहले का मनुष्य अपने भाग्य पर भी भरोसा करता था उसका मानना था कि, जिसके भाग्य में जितना है उसे उतना ही मिलेगा उससे ज्यादा पाने की चेष्टा व्यर्थ है।
यह भावना मानव को बुरे कर्म करने से रोकती थी पहले मनुष्य प्रकृति के साथ चलते हुए अपने जीवन को जीतने का प्रयास करता था।
पर जैसे जैसे मनुष्य विकास के पथ पर अग्रसर होने लगा उसकी इच्छाओं ने भी विस्तार करना प्रारंभ किया और मानव की आवश्यकताएं बढ़ने लगी मानव के अंदर की लालसा ने विकराल रूप धारण कर लिया अब मानव को रोटी कपड़ा और मकान के साथ साथ हर तरह की सुख सुविधा भी चाहिए थी जिसको पाने के लिए उसने ग़लत काम करना शुरू किया दूसरों की समृद्धि को देखकर उसके मन-मस्तिष्क में भी अमीर बनने की इच्छा जागृत हुई तब ज्यादा अमीर बनने की कोशिश में वह हर प्रकार के कुकर्मों को करने लगा अब न उसे ईश्वर का डर रहा न समाज का क्योंकि समाज में भी परिवर्तन होने लगे थे जो व्यक्ति अमीर था वह चाहे कितना ही निकृष्ट क्यों न हो समाज में उसकी प्रतिष्ठा थी यही देखकर सीधे-सादे लोगों ने भी बुराई का मार्ग अपनाना शुरू कर दिया।
देखते-देखते समाज से अच्छाई, ईमानदारी, मानवता और सहयोग की भावना विलुप्त होने लगी आज स्थिति ऐसी है कि,समाज में चारों ओर बुराई का बोलबाला होने लगा और अच्छाई धूमिल पड़ती गई।
मनुष्य यह भूल गया की मनुष्य कितना भी धन अर्जित कर ले पर मृत्यु के समय अपने साथ कुछ लेकर नहीं जा सकता सब यहीं छूट जाएगा और यदि उसके बच्चे अच्छे चरित्र के हैं तो वह स्वयं अपनी आवश्यकताओं को पूरा कर सकते हैं और यदि उनका चरित्र अच्छा नहीं है तो उनके पास चाहे जितना धन होगा वह भी कम पड़ जाएगा।
मनुष्य अपने साथ धन नहीं अपना चरित्र लेकर जाता है इसलिए उसे कभी भी अपनी मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं करना चाहिए।
व्यक्ति की आवश्यकताएं जितनी सीमित होंगी वह व्यक्ति उतना ही संतुष्ट और खुशहाल जीवन व्यतीत करेगा।
अतः मनुष्य को अपनी मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कभी भी ग़लत मार्ग का चयन नहीं करना चाहिए रोटी जीने के लिए चाहिए तन ढंकने के लिए वस्त्र और सर छुपाने के लिए मकान जहां मनुष्य चैन की नींद सो सके व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं को जितना बढ़ाएगा उसे जीवन में उतनी ही कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ेगा जब व्यक्ति की लालसा और इच्छाएं सीमित होंगी तो उसकी मनःस्थिति भी स्वस्थ और प्रसन्न रहेगी।
डॉ कंचन शुक्ला
स्वरचित मौलिक