तुम्हारा ख़त जब मिला मैं देखती रह गई,
क्या न आओगे तुम जो ख़त तुमने लिखा?
धड़कने मेरे दिल की बढ़ने लगी,
क्या लिखा होगा ख़त में,
सोचने मैं लगी,
तुम गए जब थे मुझको,
छोड़कर यूं अकेली,
जाते जाते ये वादा किया था सनम,
जल्दी आओगे तुम लौटकर मेरे पास,
फिर ये ख़त क्यों लिखा?
क्या न आओगे अब?
मैं रस्ता तकती रही,
सोलह श्रृंगार कर,
होली आई-गई रंग फीके पड़े,
सावन आया मगर वह सुहाना न था,
मैं सुहागिन रहूं व्रत मैंने किया,
अब दिवाली पर भी क्या न आओगे तुम?
ख़त लिखा है मुझे,
ख़त कैसे पढूं दिल डरा डरा है,
देश की आन प्यारी तुम्हारे लिए,
यह पता है मुझे तुम बताओ नहीं,
साथ हरदम तुम्हारे रहती हूं मैं,
तुमने ही तो कहा था मुझसे सनम,
तुम धड़कन मेरी सांसे मेरी हो तुम,
पर देखे बिना चैन आता नहीं,
ख़त देखकर डर गई हूं बहुत,
कहीं ऐसा न हो,
यह ख़त आखिरी हो सनम,
ऐसा करना नहीं तुमको मेरी कसम,
दीप जलाए रहूंगी दिवाली पर मैं,
उसको बुझने न दूंगी,
तेरे आने तक मैं,
मेरा विश्वास तू,मेरा अभिमान तू,
मेरा विश्वास खंडित न कर देना तुम,
मेरे माथे की बिंदिया न धूमिल पड़े,
जो ख़त तूने लिखा,
वह आखिरी न बने,
आ भी जाओ सनम,
इक ख़त ऐसा मैंने भी है ,
लिखा तुमको सनम।।
डॉ कंचन शुक्ला
स्वरचित मौलिक