मन का दिया जलता रहे ;
माँ, तुम मेरे अंतस में अविरल बहती रहो, 
प्राण प्रकम्पित करती रहो !!!
स्नेह -सुधा की अमर धार से, 
श्वास निर्बिघ्न चलती रहे ;
तुम्हारे प्रेम की अमरबेल बढ़ती रहे ;
मेरे अंतस में तुम्हारा प्रेम विकसित होता रहे, 
पल्लवित और कुसुमित होता रहे ;
तुम्हारे अस्तित्व को साकार करती रहूँ ;
मेरे अन्तः में अमृत की धार बन बहती रहो ;
प्राण प्रकम्पित करती रहो ~
मेरे ह्रदय में दीपशिखा सी जलती रहो ;
प्राणों में ओज़ भरती रहो ;
बन अमृत की धार धमनियों में ;
प्राण प्रकम्पित करती रहो ;
तुम्हारे अस्तित्व को साकार रख सकूँ  ;
इस जीवन निर्बाध काट सकूँ। 
तुम्हारी आस्था के दीप जला सकूँ ;
जीवन तरु को पूर्ण विकसित कर पाऊं, 
तब तक; तुम दीपशिखा सी अंतस में  जलती रहो !
ह्रदय -स्थल को स्नेह सिंचित करती रहो !
बन अमृत की धार मेरी धमनियों में
 प्राण प्रकम्पित करती रहो। 
        ✍ डॉ पल्लवीकुमारी”पाम 
          पटना, बिहार
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