रोहन, रंजना, पल्लवी और महेश को वृन्दावन से वापस आये पांच से भी ज्यादा महीने हो गये। इतने बीच में रामचंद्र और ममता जी ने उनसे कई बार बातें कीं। कई बार एक बार की मुलाकात में कुछ अपने बन जाते हैं। कई बार सालों साथ रहने बाले भी बेगाने लगते हैं।
परीक्षा की तैयारी के कारण रंजना और रोहन की आपस में बहुत समय से बात भी नहीं हुई थी। पर परीक्षा के बाद अब आजादी मिली। वैसे रोहन और महेश दोनों को छुट्टियों में घर भी जाना था। तो इस समय रंजना और पल्लवी का उनसे मिलना बहुत जरूरी था।
रैस्टोरेंट में आज ज्यादा शांति थी। कुछ महीनों का विछोह भी रंजना और पल्लवी को भारी लग रहा था। आज वे अपने प्रेमियों को जी भर कर देख रहीं थीं।
” आंखों में ये आंसू अच्छे नहीं लगते।”
” क्यों। क्या परेशानी है आंसुओं से।” रंजना ने रोहन का प्रतिवाद किया। फिर कुछ क्षण खामोशी छा गयी।
” मुझे लगता है कि विधाता ने नारियों को जो शक्तियां दी हैं, उनमें एक अश्रु भी है। अश्रुओं का सैलाब बङे से बङे दुखों को बहा ले जाता है। फिर से नारी पहले की तरह तरोताजा हो जाती है। “
पल्लवी की बात मानने का कोई आधार था भी या नहीं पर वास्तविकता तो यही दिखती है। स्त्रियां कठिन से कठिन परिस्थिति को आसानी से सहन कर लेती हैं। अक्सर मन से बङी होती हैं। ममता ने भी इतने जुल्म सहे। पर जब रामचंद्र उसके पैरों में गिर पङे तो आंसुओं के रास्ते सब नफरत बहा दी। आज वह उन्हीं के घर पर उनकी बहन बनकर रह रही है। इन चारों को तो अब तक पता नहीं है कि वे दोनों वास्तव में समधी और समधिन हैं।
नारियों के पास भले ही आंसुओं का हथियार है पर पुरुष अक्सर इनसे बचना चाहता है। बात ऐसी नहीं है कि वह दुखी नहीं होता। उसे भी रोने का मन करता है। पर पुरुषत्व के अहम् में उसने आंसुओं ने नाराजगी बना रखी है। आंसू बहाते मनुष्य को हमेशा हीन दृष्टि से देखा गया। हमेशा यही सिखाया गया कि आदमियों को रोना नहीं चाहिये। रोती तो औरतें हैं। क्योंकि वह कमजोर होती हैं। इस तरह औरतों की सबसे बङी ताकत कमजोरी का पर्याय बन गयी। पुरुषत्व के अहम् ने नर को नारी से बहुत पीछे कर दिया। जबकि बङप्पन हमेशा नारी बनने की तरफ है। रामचंद्र जी का ही उदाहरण ले लो। जब तक वह पुरुष के अहंकार में लिप्त रहे, बहुत छोटे रहे। पर जिस दिन अपने पूर्व कर्मों को याद कर स्त्रियों की तरह रोने लगे, बहुत ऊंचाई पर पहुंच गये। इतना कि वह अपनी गलती भी जन समुदाय में स्वीकार कर पाये।
मन तो रोहन और महेश का भी रोने का था। पर अभी उनके मन पर पुरुष हावी था। रामचंद्र जी जैसी स्थिति आने में उन्हें समय लगेगा। पर पुरुष होने की बजह से दोनों बातों को बदलना अच्छी तरह जानते थे। जिस ख्याल से ही रोना आये, उस तरफ न सोचकर अन्य तरफ सोचना चाहिये।
फिर इधर उधर की बातें शुरू हुईं। पर लङकियों के चेहरे पर खुशी नहीं आयी। आखिर बातों का सिलसिला वृन्दावन तक पहुंच गया।
” सुन। कल अंकल और अंटी का फोन आया था।”
” अरे। अब बता रहे हों। क्या कह रहे थे।”
“. कह क्या रहे थे। बुला रहे हैं। कह रहे हैं कि एक दिन घूमने आ जाओ।”
” फिर अब चलने का विचार है।”
” अभी घर घूम आऊं। फिर चलेंगे।”
अचानक माहौल में रौनक आ गयी। फिर सभी ने भरपेट खाया। और घर के लिये चल दिये। एक बार फिर विदा होते समय लङकियों की आंखें गीली हुई। पर शायद अभी उनका वियोग तो नहीं होना था।
दो नकाबपोशों ने उनपर ताबड़तोड़ गोलियां चलानी शुरू कर दी। चारों बचते भागे। फिर भी बच न सके। पर ईश्वर की कृपा थी कि पुलिस की पैट्रोलिंग गाङी वहाॅ आ गयी ।बदमाशों को भागना पङा। चारों बच्चे साथ साथ अस्पताल ले जाये गये।
थोङी देर पहले की खुशियों की जगह मातम छा गया। पर अच्छी बात यह थी कि किसी को ज्यादा चोट नहीं आयी। कोई समझ नहीं पाया कि उनका कौन दुश्मन है।
………..
” बहन ।याद है आज क्या दिन है।”
” बिलकुल याद है भैय्या। आज ही तो हमारी वीना दुनिया में आयी थी। बिलकुल लक्ष्मी भाभी पर गयी थी।”
रामचंद्र अचानक लक्ष्मी का जिक्र आने पर उदास हो गये। वैसे आज खुशी का पल था। पर आज दुख का भी क्षण था। आज ही के दिन लक्ष्मी दुनिया से विदा हुई थी।
रामचंद्र के हाव भाव देख ममता समझ गयी कि उससे गलती हो चुकी है। ऐसे अच्छे समय में लक्ष्मी का नाम नहीं लेना चाहिये था। पर जैसे गलती करके छोटा बालक बात बदलता है, उसी तरह बोली।
” आज खाने में क्या बनाऊं। वैसे मेरा मन तो आलू के पराठें बनाने का था।”
” आलू के पराठे। वो तो वीना को बहुत पसंद थे।”
” तभी तो भैय्या। आज आलू के पराठे बनाती हूं।”
” ठीक है। बना लो। पर खाऊंगा पहले वीना से बात करके।”
फिर रामचंद्र स्मृतियों में घूमने लगे।
” याद है बहन। वीना मेरे हाथ से ही खाना खाती थी। एक बार मैं बङी देर बाद घर आया। पता चला कि वीना ने अभी तक खाना खाया ही नहीं है। उस दिन के बाद मेने अपने कान पकङ लिये। काम बाद में। पहले वीना को खाना खिलाना है। फिर धीरे धीरे वीना बङी हो गयी। फिर वह मेरे खाने का ध्यान रखने लगी। फटकारने में भी कम न थी। पापा कब तक काम करते रहोंगे। अपना ध्यान ही नहीं रखते। मैं बोलता कि कब तक मेरा ध्यान रखेगी। एक दिन तुझे ससुराल भी जाना है। तो क्या बोलती थी। मालूम है बहन। “
.” मालूम है भैय्या। ” काम करते करते ममता बोली।
” यही ना कि मैं हमेशा अपने बाबू का ध्यान रखूंगी। ससुराल जाने के बाद भी। “
” हाॅ हाॅ ।पर तुम्हें कैसे पता। “
ममता एक बार लक्ष्मी की बात कहकर रामचंद्र जी को दुखी कर चुकी थी। सोचने लगी कि कैसे बोलूं कि वीना ससुराल में भी अपने बापू को बहुत याद करती थी। पास में होने पर भी बापू की देखभाल न कर पाने के लिये रोज रोती थी। फिर बात घुमाकर बोल दिया।
” अब भैय्या। वीना कोई आपकी ही बेटी नहीं थी। मुझे भी बचपन से बङा प्रेम करती थी ।जो आपको कहती थी, मुझे भी कहती थी।”
” हाॅ हाॅ ।”
वैसे स्त्रियां ज्यादा भावुक होती हैं। यादों की कश्ती पर सैर करती रहती हैं। उन्हें पुरुष ही बहलाकर वर्तमान के धरातल पर लाते हैं। पर यहाॅ अब अक्सर उलटी परिपाटी चल रही थी। रामचंद्र जी अक्सर यादों की नांव में सफर करने लगते। वैसे यादों में सफर करना कोई गलत बात नहीं है। पर सफर करते करते, ‘ अरे मैं अपनी बेटी को समझ नहीं पाया’, ‘ अरे मैं ही वह नीच पापी हूं जिसकी बजह से बहन को परेशानी उठानी पङी’ जैसी बातें करने लगते। ये सारी बातें ममता को ज्यादा व्यथित करने लगतीं। तो ममता ने दूसरा तरीका निकाल लिया। वह रामचंद्र जी को तुरंत यादों से वर्तमान में ले आती।
” खाना बन रहा है भैय्या। मुंह हाथ धोकर आओ ।ऐसे खाने नहीं दूंगी।”
रामचंद्र उठकर चल दिये। गुसलखाने में अच्छी तरह मुंह हाथ धोकर खाने के लिये बैठ गये। आलू के पराठे थाल में रखकर और कटोरियों में चटनी, अचार आदि लेकर ममता ने खाना रामचंंद्र के सामने रख दिया। ईश्वर को भोग लगाकर रामचंद्र ने पहला कौर तोङा फिर अचानक वापस रख दिया।
” अब क्या हो गया। भैय्या।”
” लगता है कि बुढापा ज्यादा आ गया। थोङी देर पहले की बात भी याद नहीं रही। पहले अपनी वीना से बात तो कर लूं।”
” हाॅ हाॅ ।पर अकेले बात करके फोन मत रख देना। मुझे भी बात करनी है।”
रामचंद्र जी ने रंजना को फोन मिलाया।
” हलो रंजना बिटिया ।मैं वृन्दावन से तुम्हारा अंकल बोल रहा हूं। “
अचानक रामचंद्र जी चुप हो गये। उनकी आंखें गीली होने लगीं। फोन काटकर चुप बैठ गये। फिर खाना भी नहीं खाया।
” बहन। तैयार हो जाओ। अभी चलना है। हमारे बच्चे अस्पताल में भर्ती हैं।”
अब ममता रोने लगी। दोनों में से किसी ने भी खाना नहीं खाया। तुरंत ड्राइवर को चलने के लिये बोला। इतने बीच में रामचंद्र ने अपनी जानकारी के अधिकारियों व नेताओं को फोन किया। बुलंदशहर पहुचने तक उनकी सिफारिश बुलंदशहर के अधिकारियों तक पहुंच जानी चाहिये। वैसे तो पुलिस जनता की सेवक है। पर कितने पुलिस अधिकारी अपने आप अपनी जिम्मेदारी निभाते हैं। फिर अधिकारियों व बङे नेताओं से जान पहचान ही काम आती है।
……….
बच्चो पर हमले के बाद पुलिस ने उन्हें अस्पताल में पहुंचाकर अपने कर्तव्यों की इति श्री समझ ली। रोहन और महेश के माता पिता भी पहुंच चुके थे। पर हमला करने बालों को तलाशने में पुलिस की कोई भूमिका नजर नहीं आ रही थी। माता पिता अनेकों बार थाने गये। पर जब उन्हें ही नहीं मालूम कि उनका दुश्मन कौन है तो पुलिस भी क्या कर सकती है। उल्टा पुलिस से चार बातें सुनकर वापस आ जाते। आखिर अब उनके लिये अपने बच्चों का इलाज कराना ज्यादा जरूरी था।
पर अचानक पुलिस महकमे ने काम की रफ्तार पकङी। एक पुलिस के हवलदार ने ही बताया कि बहुत ऊपर से इस बारे में कफ्तान साहब को फटकार पङी है। अब समझ नहीं आ रहा था कि यह ऊपर तक किसकी जान पहचान है। चारों में से किसी को अपना कोई राजनैतिक परिचय का समझ नहीं आ रहा था।
रामचंद्र जी और ममता के आ जाने से स्थिति साफ हुई। कल रात रामचंद्र जी ने ही रंजना को फोन किया था। रंजना की माॅ को यही लगता कि वृन्दावन से गैस्ट हाउस का मालिक अपने फायदे के लिये ही बार बार फोन करता है। अक्सर किसी होटल में एक बार रुक लो तो उसके एजेंट बार बार फोन करते रहते हैं। पर रंजना पर हमला की खबर देते ही वह अपने धन बल सहित तुरंत चल दिये। कल तक हमसे बात भी न करने बाली पुलिस अब भागी भागी फिर रही है। सच कहा है कि संसार में कितने तरह के लोग हैं। किसी के विषय में इतनी जल्द धारणा नहीं बनानी चाहिये। इतने बङे आदमी, हजारों कामों को छोड़कर भागे आये। जबकि कई नजदीकी रिश्तेदार देखने भी नहीं आये।
पर क्या राजनैतिक पहचान, अधिकारियों से जानकारी, धन बल से ही अपराधी पकङ में आ जाते हैं। अनेकों अपराधी इतने चालाकी से काम करते हैं कि सामने होने पर भी नजर नहीं आते। फिर केवल ईश्वर ही इस विषय में मदद कर सकते हैं।
क्रमशः अगले भाग में…..
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’