रात के लगभग नौ बज रहे थे। जुगनू साइकिल से फैक्ट्री के लिये निकला पर फैक्ट्री पहुंचा नहीं। एक दिन पूर्व ही  पगार मिली थी। किसी तरह उधार देने बाले से बचा हुआ था। जेब में रखे पैसे कुलबुला रहे थे। फिर जुगनू फैक्ट्री कैसे पहुंचता। 
  शहर के बाहर देशी शराब और बिदेशी शराब के दो ठेके पास ही पास थे। हर रोज की तरह देशी शराब के ठेके पर भीड़ लगी हुई थी। मजदूर वर्ग वहीं अपनी मेहनत की कमाई बर्बाद करता था। जुगनू भी देशी के ठेके का नित्य ग्राहक, पर आज उसकी जेब में पैसे थे। अंग्रेजी शराब के ठेके पर जाकर उसने कुछ नोट दिखाए। भीतर बैठे आदमी ने उसे शराब पकड़ा दी। फिर कुछ नमकीन बगैरह के साथ वहीं एक कौने में पीने लगा। नशा सर चढने लगा। हालत ऐसी हो गयी कि जुगनू के पैर जमीन पर चलने में ही लड़खड़ाने लगे। 
  पैर भले ही जमीन पर भी न चल पा रहे थे, पर उसका दिमाग आसमान पर था। वहीं से कुछ सौ मीटर की दूरी पर हीराबाई के कोठे पर महफिल जमी हुई थी। हीराबाई कोई छोटी मोटी वैश्या न थी। बड़े बड़े रईसों को ही उसके कोठे में जगह मिल पाती। व
आज तो वह शहर के एक बाहुबली नेता बाबूलाल के साथ थी। नेता जी ऐसे कि उन्हें अच्छा खासा  गुंडा कहो तो ज्यादा अच्छा होगा। पुलिस भी उनके नाम को सुन थर थर कांपती थी। 
  
  हीराबाई के कोठे पर कितने ही लोग उसके साथ रात गुजारने की लालसा लिये आ रहे थे पर बाबूलाल को देख कोई भी वहां न रुकता। पर जुगनू को इतना होश कहाँ। इस समय तो वह अपने आप को शहर का सबसे बड़ा रईस और सबसे बड़ा गुंडा समझ रहा था। शराब के नशे में उसे अपनी असलियत कब ध्यान थी। 
  जुगनू फैक्ट्री भी नहीं गया। और न सुबह वापस आया। मोहन को चिंता हुई। जुगनू की खोजबीन शुरू हुई। पर जुगनू का कहीं पता न चला। शाम के समय थाने में जुगनू की गुमशुदगी की रिपोर्ट की गयी। 
  अगले दिन सुबह मोहन को थाने में बुलाया गया। शहर से बाहर किसी निर्जन जगह पर जुगनू का शव मिला था। शराब और शबाब की लत ने जुगनू का जीवन ही छीन लिया। और जुगनू की सहधर्मिणी दया के जीवन में वैधव्य भर दिया। ठीक उसी समय जबकि दया माॅ बनने बाली थी। 
  पुलिस की जांच आगे बढी। किसी मुखबिर द्वारा उसके हीराबाई के कोठे की तरफ जाने की बात सामने आयी। बाबूलाल का डर कि हीराबाई कुछ भी बताने को तैयार न थी। फिर लोकअप में हीराबाई की जबरदस्त पिटाई, बाबूलाल की संलिप्तता का जान पुलिस की भी हिम्मत जबाब दे गयी, फिर एक बार फिर से हीराबाई को ही गुनाह स्वीकार करने को बाध्य किया। कानून की नजर में जुगनू के कातिल को सजा हो गयी। पर क्या वास्तविक दोषी सजा पा सका। पा सकता था यदि जुगनू भी कोई बड़ा आदमी होता। एक मजदूर के लिये कौन ज्यादा चिंता करता है। 
  विधवा का जीवन सदियों से कष्टों से भरा रहा है। सुख और दुख तो भाग्य के ही आधीन होते हैं। बेटियों को जीवन भर सुख की आशा से जिस परिवार में विवाह किया गया था, वह संपन्न परिवार भी क्या दो कन्याओं को सुख दे सका। सौम्या तो पहले से ही पति की बेरुखी से दुखी थी। दया के आने के बाद कुछ समीकरण बदले। पर अब दया ही बैधव्य का अपार दुख झेल रही थी। सचमुच मनुष्य तो बस अपने मन से श्रेष्ठ कर सकता है। परिणाम तो उस भाग्य के आधीन है जिसे कुछ ईश्वर के अधीन कहते है तो कुछ का मानना है कि ईश्वर भाग्य निर्माण में पूरी तरह निष्पक्ष होते हैं तथा पूर्व के कर्म ही भाग्य बन सामने आते हैं। 
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’
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