कहने को ये सिर्फ एक कहावत हैं की दिवारों के भी कान होते हैं..। लेकिन असल में ये बात उन निर्जीव दिवारों के लिए नहीं बल्कि हम सजीव इंसानों के लिए कही गई हैं..। 
बहुत से लोगों की ये एक आदत हो चुकी हैं…. दीवार की ओट में छिपकर दूसरे लोगों की बातें सुनना..। 
सुनी सुनाई बातों में आकर घर में या फिर घर के बाहर चुगली करना…. लोगों के व्यक्तिगत जीवन में जहर घोलना… रिश्तों में फूट डालना..। बहुत से लोगों का नीजी काम हो चुका हैं..। 
वो कहते हैं ना करे कोई भरे कोई…. 
बात सिर्फ़ ये ही हैं करते हैं इंसान और बदनाम होती हैं दीवारें..। 
दीवारें सिर्फ घर की रखवाली करने के लिए… बनाई जाती हैं..। 
घर को घर बनाने के लिए के लिए खड़ी की जाती हैं..। ताकि इंसान उस घर में रह सकें सुकून से…. चैन से…..। 
लेकिन हम इंसान बाज नहीं आते हैं…. हमारी ये आदत हो चुकी हैं….। मौका ढुंढते हैं एक दूसरे की जिंदगी में जहर घोलना…. एक दूसरे को नीचे गिराना… एक दूसरे की सफलता को देखकर जलना…कोई कुछ अच्छा करें तो उसके भीतर खामियां निकाल कर नीचे धकेलना…कामयाबी की राह में रोड़े खड़े करना…। 
ये सब हम सिर्फ हम इंसान ही कर सकते हैं…. दीवारों में इतनी क्षमता कहाँ… । इन दीवारों पर तोहमत भी हम इंसानों ने ही लगाई हैं…। वो तो बेचारी खामोश खड़ी रहती हैं….। काश उनके कानों के साथ जुबान भी होती तो हम इंसानों को सही राह भी दिखा देतीं और अपने हक़ के लिए लड़ भी रहतीं….। पर खामोश दीवारें खड़े होकर सिर्फ अपने ऊपर इल्जाम लेती रहतीं हैं…। 
जिस दिन दीवारों ने सुनने के साथ बोलना भी शुरू कर दिया… वो उन इंसानों को सबक जरूर सिखाएगी जो उनकी ओट में अपना उल्लू सीधा करते हैं…।
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