हां
शायद मैं ही पागल हूं
जब अधिकतर लोग धरती पर स्वर्ग
अपनी अट्टालिकाओं की चहारदीवारी में
या मंदिर या मस्जिद या देवालय के प्रांगणन में खोजते हैं-
तब मैं
झोपड़ पट्टी में भूख से लड़ते लोगों को
भोगते हुए नर्क की तश्वीर देख विचलित होता हूं,
और जानना चाहता हूं प्रगति का दंभ भरने वाले हमारे भाग्य विधाता क्या सोचते हैं-
पता नहीं
मरने के बाद की स्वर्ग की अवधारणा
सत्य है या असत्य-
लेकिन समझ नहीं पाता
स्वार्थ में लिपटा, दूसरों के निवालों को छीन कर
कैसा है धरती पर स्वर्ग ढ़ूढ़ने का कृत्य-
धरती
जहां कल तक बहती थी
निश्छल, निर्मल नदी की धारा अब वहां रेत ही रेत है-
पेड़ो की अंधाधुंध कटाई, कंक्रीट की इमारतें
और सिमटे खेत है-
पर्यावरण के समन्वय को लगाते पलीता
बस स्वार्थ और अर्थ का अंधा अनकहा खेल है-
राजनेताओं और संरक्षण के लिए जिम्मेदारों का बड़ा अजीब मेल है-
जहां बहती थी
ठंडी और स्वच्छ हवायें वहां दूषित वातावरण है-
बस अब नर्क की
अवधारणा में कैसे हो स्वर्ग का अवतरण है-
शायद यथार्थ को
सोचने, समझने का फर्क है-
इसलिए दिखता धरती का स्वर्ग है-
जो कल्पनाओं में ही हमेशा रहता है-
उसे उजड़ते पर्यावरण, घुटती श्वासों, सूखती नदियों और प्रदूषित वातावरण में भी स्वर्ग दिखता है-
राजीव रावत