पंचायत में कभी कालीचरण का पलड़ा भारी रहा तो कभी सैरावत के पक्ष में माहौल गया। दोनों ने ही भावनाओं का खुलकर प्रयोग किया। कालीचरण के लिये दया को उसके अधिकार सहित ससुराल भेजना ज्यादा महत्वपूर्ण था तो सैरावत को दया के आगमन से परेशानी न थी। पर जुगनू की विधवा को वह जुगनू के हिस्से की पैत्रिक संपत्ति का अधिकारी बनाना नहीं चाहता था। दोनों के अपने अपने तर्क थे। बिना अधिकार दया को ससुराल भेजने से कौन सी स्थिति बदलती। और दया को उसका अधिकार देने के बाद क्या संभव नहीं है कि उस संपत्ति को बेच फिर दया दूसरा विवाह न कर ले। वैसे भी अभी उसकी उम्र भी कौन ज्यादा है।
पंचायत करा रहे रिश्तेदारों के अनुसार भी इस तरह विधवा को संपत्ति की मालकिन बना देना कोई समझदारी नहीं है। कई बार पंच भी घटनाओं को खुद के जीवन से जोड़ देखने लगते हैं। कालीचरण और सैरावत जैसी स्थिति किसी के भी घर आ सकती है। फिर कोई भी विधवा अपने अधिकार की मांग करने लगेगी। इस पंचायत को दृष्टांत के रूप में प्रयोग किया जा सकता है। तथा पंचायत के पंच को उसे खुद के घर में भी अस्वीकार कर पाना आसान न होगा।
आखिर जब पंचायत समाप्त हुई तब दोनों ही पक्ष खुश थे। दोनों ही पक्षों को उनकी समस्याओं का हल मिल चुका था। पंच की भूमिका में उपस्थित विभिन्न रिश्तेदार अहंकार में अपनी अपनी मूछों पर ताव दे रहे थे। आखिर उन्होंने ही तो वह रास्ता निकाला जो कि ‘ सांप मरा और लाठी न टूटी’ की कहावत को चरित्रार्थ करता है। हालांकि कभी उनकी विरादरी में मौजूद जिस चलन को इस समस्या के निदान के लिये स्वीकार किया गया था, उस परंपरा का आज के दौर में कोई भी कानूनी महत्व नहीं है। उससे भी बड़ी बात कि पंचायत के निर्णय को दया किस तरह स्वीकार कर पायेगी, पंचायत का निर्णय उसके जीवन को किस तरह तहस नहस कर देगा, इस बात को पूरी तरह नजरंदाज किया गया। शायद दया के हित की कामना से की जा रही इस पंचायत का दया के हित और अहित से कोई संबंध ही नहीं था। यदि ऐसी कोई भी परंपरा किसी व्यक्ति या समाज के हित में होती, वर्तमान आवश्यकताओं को पूर्ण करती तो निश्चित ही उस परंपरा को कानूनी मंजूरी होती।
पंचायत के बाद कालीचरण को दया को आश्रय देने से मुक्ति मिल जायेगी। उनके नाती का विवाह भी आराम से हो जायेगा। सैरावत को भी कोई विशेष हानि न होगी, पर दया जिसके भले के लिये यह पंचायत बैठी थी, उसका क्या भविष्य होगा, यह तो ईश्वर ही जानें।
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’