यूं तो वश ना होता मन पर,
मन करता है स्वछंद विचरण।
पर क्या मनमानी कर पाते हम,
करते लिहाज गैरों का आचरण।
मन में घूमते अन्य मखमली दुनिया में,
तंद्रा टूटते पाते खुद को खुरदरी धरा पर।
चाहता मन खुल कर जीना जहां में,
पर बंदिशें चढ़ने ना देती उच्च तरा पर।
मन ही हमें हंसाता और रूलाता,
मन के हारे है हार और जीते जीत।
मन भी होता मजबूर और मगरूर,
मन के अरमान भी कुचले जाते ओ मनमीत।
मन रूपी कोठरी में रोग लगाओ झाड़ू,
पर जाने कैसे रोज मिल जाता इसमें कूड़ा।
सोचा इस कोठरी में लगा दूं भारी ताला,
पर इस कोठरी में ढ़ेर अदृश्य तार है जुड़ा।
-चेतना सिंह,पूर्वी चंपारण