वो खिड़की जो बंद रहती है

रोशनी के लिए सिसकती है
कुछ छेदों से झांकती रोशनी
अंधकार को मिटाती है
वो बंद कुड़ियां 
जंग लगी हुई 
बेजान सी अब तब दम तोड़ती
मोटी सिकड़ फांस लगाए
जर्जर दीवारें अधखुली 
ढहती गिरती कई मनघड़ंत
अफवाहों से घिरी 
पर गुंगी कहें भी कैसे ?
कोई सुनता ही नहीं
अंधविश्वासों में अंधे हुए लोग
उसकी मरम्मत नहीं 
मौत को लिखते हैं
बंद पड़ी वो खिड़की बस
लाचार झांकती है
कहती है खुद से
हाय ये लोग …..
बस करो सारे ढकोसले 
                                   प्रिया प्रसाद ✍️
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