नैना राज सिंह के सामने बैठी थी। वह समझ रही थी कि एक बार फिर से पिता जी भविष्य के लिये शिक्षा देंगें। सच ही है कि पिता का मन हमेशा बेटी के भविष्य की चिंता में जलता रहता है। सब कुछ भाग्य के आधीन होता है। फिर भी सत्य है कि मनुष्य अपने संस्कारों से विषम से विषम स्थितियों से पार पा जाता है। विरोधियों को अपना प्रशंसक बना देता है। सच कहा जाये तो बेटियों के लिये शिक्षा जितनी महत्वपूर्ण है, संस्कार उससे भी अधिक महत्वपूर्ण हैं। कई बार शिक्षा का अहम परिवार में भी मतभेद पैदा करता है। पर संस्कारों की दिव्य धारा केवल जोड़ने का ही काम करती है। वैसे भी अब पिता से विदाई के दिन नजदीक आ रहे हैं। ऐसे में पिता की बातें सुन उनका मन रखना चाहती थी।
   राज सिंह जी ने पहले तो रमा की तस्वीर साफ की। नयी फूलमाला पहनायी। फिर सुनाना शुरू की एक और प्रेम कहानी। जिसके नायक वह स्वयं थे और नायिका थी उनकी अर्धांगिनी और नैना की माॅ रमा।
   पुराने दिनों को याद कर राज सिंह कहीं खो गये।
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  बात उन दिनों की थी जब मैंने अपनी पढाई पूरी की थी। आगे अच्छी नौकरी के लिये वह तैयारी कर रहा था। वैसे उन दिनों पढे लिखे युवकों के लिये नौकरी की बहुत समस्या न थी। फिर भी अच्छी नौकरी के लिये प्रयास तो करना होता है।
   मेरे ताऊ के लड़के महेश सिंह की शादी थी। बच्चों के लिये तो शादी वैसे भी एक त्यौहार है। हर तरह की मौज मस्ती करते, बैंड बाजों पर नाचते युवा, ऐसा लगता है कि मानों दुनिया भर की चिंताओं का बोझ उतार आये हों। शादी के माहौल में मैं भी खुद को भूले हुए था । दूल्हे के भाई होने के कारण मुझे दूल्हे के पास रहने का अधिक मौका मिल रहा था।
   बरात चढने के बाद जयमाला का कार्यक्रम शुरू हुआ।  भाभी जी जब हाथों में जयमाला लेकर आयीं तब सभी की नजर उन्हीं की तरफ थीं। आखिर शादी के बक्त सब दूल्हा और दुल्हन को ही तो देखते हैं। महरून रंग का लंहगा पहने दुल्हन अपनी खूबसूरती से महफिल को चार चांद लगा रही थी।
  पर मेरी नजर तो कहीं अलग थी। दुल्हन के साथ की लड़कियों में एक गुलाबी सूट पहने मेरे दिल और दिमाग पर छा रही थी। वह कौन थी, कहा नहीं जा सकता। निश्चित ही या तो दुल्हन की कोई रिश्ते की बहन होगी अथवा कोई सहेली।
   अपरिचित लड़के और लड़कियों के मध्य ज्यादा बातचीत का चलन न था। चाह कर भी मैं उस लड़की से बात न कर सका। 
    शादी पूरी हो गयी। मैं फिर से अपनी तैयारी में लग गया। मेहनत का फल भी मिला। अच्छी सरकारी नौकरी मुझे मिल गयी।
  सुंदर युवक और सरकारी नौकरी। अब हर रोज घर में लड़की बालों की लाइन लगती।पर मेरा  मन तो उसी गुलाबी सूट बाली लड़की के साथ रह गया था। पर घर पर कुछ कहने की हिम्मत न थी। वैसे मुझे कोई पूछ भी नहीं रहा था। यही उन दिनों का चलन था।
   मेरी  स्वीकृति की परवाह किये बिना मेरा रिश्ता तय कर दिया गया। ऐसा लगा कि मन के गलियारे में जन्म हुई एक प्रेम कहानी का चुपचाप समापन हो जायेगा। पर सत्य है कि बहुधा दुनिया बनाने बाले की माया उससे अधिक व्यापक होती है जितना सब समझते हैं। कई बार दिल में प्रेम के बीज बोने बाला ही उस बीज के अंकूरित होने तथा फलने फूलने की बजह बनता है।
क्रमशः अगले भाग में 
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’
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