आज रश्मिरथी द्वारा लेखन के लिए दिए गए चित्र ने लेखनी को चलने के लिए उद्वेलित कर दिया।
वह कुरीति > जो चिरकाल से परम्परा और धार्मिक आड़ लेकर
समाज को खोखला क्यों और कैसे किये जा रही है जिसका अंदर ही अंदर पुरजोर विरोध हो रहा है एवं यह वास्तव में निंदनीय है फिर भी, आखिर वे कौन लोग हैं जो मृत्युभोज जैसी कुप्रथा का समर्थन करते हैं?
तो इसका जवाब है वो हम और आप के बीच से ही होते हैं। जी हाँ! सही पढ़ा आपने ये समाज के ही तो लोग होते है जो इसका कई सार्वजनिक मंचो एवं व्यक्तिगत रूप से विरोध तो करते है किंतु जब समय आता है तो इसे जमीनी रूप से स्वयं पर या समाज पर लागू करने का तो इस कुरीति को कम करने के बजाय इसे कई गुना विस्तृत कर दिखावे या अंधविश्वास की परिधि में आ जाते हैं। ये सोचने वाली बात है कि आखिर हम क्यों इस कुरीति को एक विस्तृत रूप देने में लगे हैं? क्यों हम बढ़ चढ़कर इस प्रकार का आयोजन करने में लग जाते हैं?
यह अकाट्य सत्य है कि इसे हम एक आयोजन के रूप में ही करने लगे हैं और एक दूसरे के होड़ में, स्टेटस संवारने के लिए इसे इतना विकृत दे दिया गया है कि आज इसमें पूरा समाज या यूँ कहें पूरा देश, पूरा हिन्दू समाज फंस कर रह गया है।
मैं सदैव स्वयं को सामाजिक टिप्पणियों से काफी दूर रखने का प्रयास करती हूँ । मुझे कई बार सामाजिक कार्यो एव परम्पराओं पर अपनी राय रखने या कोई टिप्पणी करने को कहा जाता है फिर भी किसी परम्परा पर अपनी राय नही रखती क्योंकि सामाजिक विषय काफी संवेदनशील और सभी की मन की भावनाओं से जुड़े होते हैं और इन्ही सामाजिक रीति-रिवाजों एव सामाजिक विषयों पर मेरे वैचारिक मतभेद कारण ही में अपने विचार स्पष्ट नही कर पाती हूँ, अब सामाजिक विषयों पर पर अपने विचार रखने की कोशिश कर रही हूँ और आप सभी सामाजिक बन्धुओं से काफी कुछ सीखने को भी मिल रहा है। मेरा मानना है कि सामाजिक कार्यक्रमों में राजनैतक मुद्दों पर चर्चा न होकर सिर्फ सामाजिक स्तर की सार्थक चर्चाएं हों तो ये हमारे या किसी भी समाज के लिए अधिक हितकारी हो सकतीं हैं।
आइए,अब समझते हैं कि एक आदर्श और सीमित परम्परा आज के समय की सबसे विकृत और समाज को खाई में धकेलने वाली कुरीति कैसे बन गयी?
पुराने समय में प्रायः ऐसा होता था और इस तरह की परंपरा थी कि कि जिस परिवार में मृत्यु हुई होती है वहाँ 12 दिन के शोक तक भोजन ही नहीं बनता था बल्कि अन्य सामाजिक सदस्य उनके भोजन आदि की व्यवस्था करते हैं। लेकिन आज के समय मे यह रीति शोक संतप्त परिवार पर इन 12 दिनों तक कई प्रकार का आर्थिक बोझ डालने वाली एक कुरीति मात्र बन कर रह गयी है।
ध्यान देने योग्य है कि आदिकाल से तो यह मृतक से संबंधित भोज होता ही नही था बल्कि किसी घर, समाज या किसी राज्य के मुखिया या राजा की मृत्योपरांत 12 दिन के शोक के पश्चात तेरहवें दिन उस मृतक मुखिया का उत्तराधिकारी चुना जाता था। जिसे पगड़ी रस्म या मृतक के उत्तराधिकारी की ताजपोशी या राजा के मृत्यु उपरांत नए राजा का राज्याभिषेक कहा जाता था।
यह पगड़ी रस्म या राज्याभिषेक सगे- संबंधियों एवं समाज स्तर के लोगों के द्वारा किया जाता है। कहने का तात्पर्य है कि नए उत्तराधिकारी को समाज के द्वारा परिवार के मुखिया होने की स्वीकृति प्रदान होती है।
आज ये परम्परा परिवार के छोटे बड़े सभी सदस्यों की मृत्योपरांत दिखावे मात्र के लिए एक विस्तारित रूप देकर शोक संतप्त परिवार आर्थिक बोझ के तले दबता जा रहा है। आज फिर से समाज को इस पर गहन विचार करना होगा कि हमारा समाज किस दिशा में जा रहा है इस मृत्युभोज > जो सिर्फ एक कलंक बन कर रहा गया है इसे किस हद तक सीमित किया जा सकता है।
अब देखते हैं आखिर कैसा होता है मृत्युभोज?
और यह कैसे बनाया और खाया जाता है। कैसे इसके खिलाफ एक अभियान चलाकर इसको सीमित, आदर्श और सामाज के लिए कल्याणकारी बनाया जा सकता है।
जिस भोजन को रोते हुए बनाया जाता है,जिस भोजन को खाने के लिए रोते हुए बुलाया जाता हैं, जिस भोजन को आँसू बहाते हुए खाया जाता हैं उस भोजन को मृत्युभोज कहा जाता है।
जिस परिवार में दुःख की घड़ी आई हो उसके साथ इस संकट की घड़ी में अवश्य खडे़ होना चाहिए और तन, मन और धन से शोक संतप्त परिवार का सहयोग भी करना चाहिए साथ ही मृत्युभोज का बहिष्कार करना चाहिए।
कहते हैं कि भोजन तभी करना चाहिए, जब खिलाने वाले का मन प्रसन्न हो और खाने वाले का मन भी प्रसन्न हो। यदि खिलाने वाले एवं खाने वालों दोनो के दिल में दर्द हो, वेदना हो तो ऐसी स्थिति में कदापि भोजन नहीं करना चाहिए।
यह तेरहवी संस्कार समाज के चन्द चालाक लोगों के दिमाग की उपज है। किसी भी धर्म ग्रन्थ में मृत्युभोज का विधान नहीं है मृत्युभोज खाने वाले की ऊर्जा नष्ट हो जाती है।
अर्थात मृत्युभोज शरीर के लिए ऊर्जावान नहीं है। इसीलिए महापुरुषों ने मृत्युभोज का जोरदार ढंग से विरोध किया है। जिस भोजन को बनाने का कृत्य जैसे लकड़ी फाड़ी जाती है तो रोकर, आटा गूँथा जाता तो रोकर एवं पूड़ी बनाई जाती है तो रोकर यानि हर कृत्य आँसुओं से भीगा। यहाँ तक कि खाना खिलाने वाला खाना खिलाता है आँसू बहा कर और खाना खाने वाला भी खाता है आँसू बहा कर। ऐसे आँसुओं से द्रवित निष्कृष्ट भोजन एवं तेरहवीं भोज का पूर्ण रूपेण बहिष्कार कर समाज को एक सही दिशा देनी चाहिए।
हाँ, जिसके पास सामर्थ्य है, वह अपने प्रियजनों के नाम से या स्मृति में कुछ करना चाहता है तो अवश्य सामाजिक हितार्थ कुछ भी कर सकता है परन्तु शोशेबाजी नहीं होनी चाहिए।
जरा पशुओं से सीखें – जिसका साथी बिछुड़ जाने पर वह उस दिन चारा नहीं खाता है वहीं बुद्धिमान मानव एक आदमी की मृत्यु पर हलवा-पूड़ी खाकर शोक मनाने का ढ़ोंग रचाता है इससे बढ़कर निन्दनीय और कोई दूसरा कृत्य हो ही नहीं सकता।
यदि आप इस बात से सहमत हैं, तो आप आज से संकल्प लें कि आप किसी के मृत्युभोज को ग्रहण नहीं करेगें।
मृत्युभोज समाज में फैली हुई कुरीति है व समाज के लिये अभिशाप है। इसका जोरदार ढंग से विरोध एवं बहिष्कार करें। इस कुरीति का सामाजिक स्तर पर समाधान कर सीमित किया जाना चाहिए। ताकि यह कुरीति, कुरीति न रहकर एक आदर्श संस्कार के रूप में ही परिचालित हो सके।
अगर सिर्फ हर वह व्यक्ति जो इस समाज में है और इस सामाजिक कुरीति को एक आदर्श संस्कार बनाना चाहता है, वो एक व्यक्ति जो की वो स्वयं है, अपने आप को बदल ले और इस आदर्श कार्य की ओर सच्चे मन से अग्रसर हो जाये तो समाज में बेहतर बदलाव देखने को मिल सकते हैं। इस बदलाव की समाज में महती आवश्यकता है,तो आइए मन मेें बिना किसी भय व अंधविश्वास को स्थान दिए आगे बढ़ें,और पहल करें।
धन्यवाद!
लेखिका –
सुषमा श्रीवास्तव
मौलिक विचार
सर्वाधिकार सुरक्षित
उत्तराखंड।