पाठशाला का पहला दिन है याद।
जिस दिन पड़ी एक अनमोल बुनियाद।
मैं नन्हीं जान पढ़ने क्या गई थी खेलने।वरिष्ठ भाई-बहनों को पड़े थे मुझे झेलने।
बहुत बड़ा कमरा था,मैं थोड़ी रोंदू सी थी।
चालाकी बिल्कुल ना थी भोली क्या भोंदू सी थी।
पर याद रहे पढ़ने-लिखने में अच्छी थी।
सुनहरे बालोंवाली गोरी-चिट्टी सी बच्ची थी।
एक मास्टरजी पास आए,कुछ तो मुझमें बात थी।
पूछा नाम और पिता का नाम,ऊंची उनकी गात थी।
सुनकर मृदु स्वर में कहा पढ़ाया है तेरे बाप को।
प्यार से मास्टरजी को कहा पहचानती नहीं आप को।
मुझे पुचकार मास्टरजी गए तो किसी ने मुझे छेड़ा।
तो जोर से चीखी मैं,जैसे हुआ हो तेज बखेड़ा।
फिर अन्य मास्टरजी चिढ़ गए क्यों लाते हो नन्हें बच्चों को।
संभालना होता मुश्किल बेशक पावन दिल के सच्चों को।
विशाल खेल-मैदान,पाठशाला लंबी-चौड़ी सरकारी थी।
-चेतना सिंह,पूर्वी चंपारण