मेरे गांव का वो हिस्सा आज भी मुझे है बुलाता
बचपन का घर वो आज भी बहुत याद आता।
भले साजोसमान से अब घर बहुत है आबाद
पर सुकून का इक कोना मैं यहाँ नहीं पाता।
उजला दिखता सब इस शहर की चकाचौध में
बस तारों का टिमटिमाना यहां किसीको नहीं भाता।
छोटे से आशियाने के संग मिला मुट्ठी भर आकाश 
अम्बर की विशालता यहां कोई माप नहीं पाता।
इर्दगिर्द बुने रिश्तों के जाल ने महफूज़ हमें रखा था
मन की बातें यहां तो कोई किसी को नहीं बताता।
असली नकली की पहचान यहां हो रही मुश्किल 
धुंधली इस फ़िज़ा में कुछ साफ नज़र नहीं आता।
इस कदर मज़बूरी है इसी आबोहवा में जीने की
इंसां अपने बचपन को फिर कभी नहीं जी पाता।
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स्वरचित
शैली भागवत ‘आस’✍️
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