ललक एक उड़ान की
आसमान से करना बातें
खेलना रुई सम बादलों संग
चिडियों सा उड़ जाऊं
बन जहाज हवा का
निहारूं भू को
उड़ते हुए आसमान से
ऊपर से नजर
कौन हिंदू, मुगल
सवर्ण या दलित
कृष्ण या गौर
दुर्बल या बलवान
सब एक से दिखते
पृथकता तो
छुद्रता का पर्याय
हाॅ, मैं ही बन जाऊं
जहाज वायु का
तज छुद्रता मन की
उड़ूं अनंत आकाश में
भेदभाव को तज
बृह्म तलाशता हर जीव में
ऊंचाई नहीं पर्याय अभिमान का
मैं उतरा भूमि पर
आपकी समझ
औकात में आ गया
कह लो
सत्य अलग है
उठना, बैठना
प्रकृति का विकार
न मेरा
मैं अलग विकारों से
बृह्म का रूप
विकार रहित
उतरना मेरा धरा पर
मेरा पतन तो नहीं
उत्थान की प्रथम सीढी को
झुकाना मस्तक मेरा
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’