बसंती चोला पहन मां भारती 
     देखो मुस्कुरा रही है 
  भांति भांति के पुष्प खिले हैं
     देखो खिल खिला रही है 
   दूर तलक जहां तक दृष्टि जाती है   
  हरियाली ही हरियाली नजर आती है
 प्रस्फ़ुटित हो रहे धरा के गर्भ से      
         नव अंकुर 
  खिल रही है आशाओं की बंद
      कलियां शर्माकर 
 उत्साह उमंग मन में भर जन मन     
        बहुत हर्षाया
निराशा के अंधेरों से उजाले की
       ओर कदम बढ़ाया
 बैर द्वेष को भूल कदम से कदम 
          मिला आगे बढ़े 
आलस को त्याग मेहनत का नया    
           इतिहास गढ़े
  फूलों पर रसपान करने को 
        भवरे गुंजायमान है
 पेड़ों की डाली पर मधुर स्वर में
           कोयल गाए गान है
 लद गई बोरो से अमवा की डाल   
    सरसों के फूलों से भरे खलियान    
  सतरंगी आंचल हो ओढ़े धरती मां
         का रूप खिल उठा
 लहराती फसलों को देख किसान का     
        मुरझाया चेहरा चमक रहा
  रंगीन लिबास में चमकी मां भारती के      
        मुखड़े की लालिमा हैं 
  रंग बिरंगी फूलों का गजरा बना
          बालों में पहना है 
सुनहरी फसलें मां के आभूषण
          बन चमक रहे है 
आसमां में करलव करते पंछी मधुर     
           संगीत सुना रहे हैं
 दक्षिण से उत्तर की ओर बहती हवा मां       
           को मतवाली बना रही है
 बच्चे मां की बाहों में झूला डाल
            मस्ती में झूल रहे हैं
 आसमान में उड़ती सतरंगी पतंगे
            मन को हर्षा रही है
चहुँ ओर छाई काली घटा रिमझिम
          तन मन भीगा रही हैं ।।
नेहा धामा ” विजेता ” बागपत , उत्तर प्रदेश
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