कभी माॅ को रंगीन वस्त्र धारण करता देख दोनों हाथों से ताली बजा रही छोटी सी बालिका शुचि पंद्रह साल की हो गयी। खुद पढाई से दूर भागने बाली दया के ही समझाने और प्रोत्साहन का प्रभाव था कि शुचि की गिनती मेधावी छात्रा के रूप में की जाती थी। पढाई के अलावा भी उसे जीवन की ठीक ठाक जानकारी हो गयी। वह समझ सकती थी कि उस दिन जब उसकी माँ ने चटक रंग के वस्त्र पहने थे, तब उसकी माँ के जीवन से खुशियां पूरी तरह विदा हो रही थीं।
  सौम्या का पुत्र कैलाश भी जीवन के बीस बसंत देख चुका था। पढाई में वह भी अच्छा था। अध्यापन कर अपना जीवन बसर करना उसका स्वप्न था। अपने स्वप्न के प्राप्ति की तरफ वह धीरे धीरे आगे बढ भी रहा था।
  जुगनू के हिस्से की जिस जमीन को सैरावत ने बचाया था, वह और मोहन के हिस्से की भी जमीन सुरक्षित न रही। आखरी सांस तक पुरखों की निशानी को सम्हालने का दावा करने बाले सैरावत भी उसे बचा न पाये। सत्य बात थी कि बच्चों के बेहतर भविष्य के लिये न तो दया और न सौम्या गांव में रहने को तैयार थी। शहर का बड़ा खर्च। फिर ईर्ष्या का ऐसा प्रभाव कि दोनों ही औरतें एक दूसरे से कम न पड़तीं। किराये के छोटे से घर में कब तक गुजारा करते। जब शहर में ही रहना है तो शहर में रहने की व्यवस्था भी करनी होगी। गांव के खेतों की अपेक्षा शहर में एक निजी मकान तैयार कराना ज्यादा जरूरी था। फिर एक घर पूरी पुश्तैनी जमीन को निगल गया। बचा गांव में बस एक घर जिसमें कोई लगातार रहने बाला भी न था।सैरावत और विंदु भी बहुधा शहर में ही रहते। 
  मोहन का परिवार ऊपरी तौर पर खुशहाली का प्रतीक लगता पर सच्ची बात थी कि बैमनस्यता की दीमक ने परिवार की खुशियों को ही खोखला बना दिया था। सौम्या और दया दोनों एक दूसरे को फूटी आंख भी न सुहाती। मौका मिलते ही एक दूसरे को जलील जरूर करतीं। अक्सर खुद के मिटे भाग्य का ठीकरा दूसरे पर फोड़तीं।
  सौम्या और दया के मध्य इस मनमुटाव का आधार था, एक छोटा सा संदेह। आवेश के क्षणों में अक्सर मनुष्य भूल जाता है कि क्या छिपाना है और क्या उजागर करना। ऐसे ही दोनों बहनों के मध्य विवाद के बीच वह सत्य सामने आ चुका था जिसे दया ने किसी से साझा नहीं किया। दया का उद्देश्य कि वह भी एक शोषिता है, सौम्या के शक्की मस्तिष्क पर अपना प्रभाव न छोड़ पाया। मस्तिष्क की कल्पना अपार थी। वह ऐसी ऐसी गाथाएं बुन लेता है, जिसका यथार्थ से कोई भी संबंध न हो। तथा संदेह से उत्पन्न उन गाथाओं को वह सत्य भी मानता है।
  सत्य और झूठ की बात बहुत पीछे छूट चुकी थी। अपराधी और पीड़ित की धारणा भी महत्वहीन थी। बचपन के स्नेह की यादें भी कब का दम तोड़ चुकीं थीं। शेष बची थी मात्र नफरत। जो दोनों बहनों के मन की सीमाओं को पार दोनों भाई बहनों कैलाश और शुचि के मस्तिष्क तक भी अपना प्रभाव जमा चुकी थी। दोनों को अपनी माँ ही शोषिता लगती। एक ही घर में कितने अघोषित घर बन चुके थे। कितनी ही अदृश्य दीवारें घर को टुकड़ों में बांट चुकी थीं। अच्छी बात थी कि इन अदृश्य दीवारों को हर कोई देखने में समर्थ न था।
  अदृश्यता तो किसी का भी भविष्य नहीं है। छिपा कुछ भी नहीं रहता। नफरत भी बाहर निकल समाज में अपना अस्तित्व प्रदर्शित करने का मौका तलाशती है। घर की चारदीवारी के भीतर छिपी द्वेष की चिंगारी एक न एक दिन प्रचंड अग्नि का रूप रख ही लेती है। एक न एक दिन घर का विवाद घर के बाहर तक भी सुनने में आ ही जाता है।
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’
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