कड़कड़ाती ठंड रुकी। पेड़ों पर नूतन पत्र कुछ रक्त और कुछ चटक हरे शोभा को बढाने लगे। अब खेतों में भी काम में भी राहत थी। फागुन की शुरुआत के साथ ही हुरहारों का उत्साह माहौल को कुछ अलग ही रंग दे रहा था। यही तो ऐसा महीना था जबकि मस्ती में थोड़ी बहुत छेड़छाड़ भी जायज कही जाती थी।
   गांव से बाहर खाली जगह पर होलिका माई की स्थापना की गयी। थोड़ी सी लकड़ियां और थोड़े से उपले रख विधिवत पूजन किया गया। पंडित जी के मंत्रोच्चारण से आसमान गूंज रहा था। इन थोड़ी सी लकड़ियों और थोड़े से उपलों की भी एक अलग ही कहानी थी। वैसे बड़ी होली भी रखी जा सकती थी। गांव के हर घर से कुछ लकड़ियों और उपलों को मांगा जा सकता था। पर इसमें वह आनंद नहीं था जो कि चोरी कर लायीं लकड़ियों और उपलों से होलिका माता के स्वरूप में विस्तार करने में था। अघोषित रूप से गांव बालों ने इस तरह की चोरी को स्वीकृति दे दी थी।
    रात में जब गांव बाले गहरी नींद सो रहे होते, तभी कुछ युवक किसी न किसी के घर से चोरी करते और जो चोरी से मिलता, उसे होलिका माई को अर्पण करते। फिर सुबह किसी घर से गालियों की आवाज आती।
  ” कड़ी खाये। मेरे घर से इतना चोरी कर ले गये। अरे कुछ हिसाब से चुराते।”
  दूसरी तरफ सत्ता बाबा का तखत गायब था। उस तखत के आस पास हर रोज महफिल लगती थी। वह तखत होलिका माई की सेवा में लग चुका था।
   पनघट पर पानी लेने जाती नवविवाहिता भी सकुचाकर किसी के रंग फेंकने का इंतजार करतीं। फिर बहुधा पानी भरने गयीं युवतियों और उन मनचलों के बीच बहस हो जाती। घर के लिये कम ही पानी आ पाता। युवतियां भी युवकों की जमकर खातिर करना जानती थीं। शोर शराबा सुनकर भी बुजुर्ग अपने कान बंद कर अपने जवानी के दिनों को याद करने लगते जबकि वह भी गांव की भाभियों से होली खेलने का लुफ्त लेते थे। वैसे अभी भी उनकी भाइयां उन्हें रंग लगाती थीं। पर उसमें वह आनंद कहां।युवावस्था गुजरते ही सब औपचारिकता रह जाती है। 
   इस बार सुजान एकदम शांत था। हर साल उसके घर कोई न कोई शिकायत लेकर आता था। उसे ही चांडाल चौकड़ी का नेता माना जाता था। फागुन के महीने में सब कुछ हो रहा था, बस सुजान एकदम निस्प्रह बन गया था। उसके माता-पिता भी शिकायतों के अभाव में कुछ दुखी से थे।यह भी एक विचित्र बात है। जब बेटे की शिकायत आतीं तब फटकारने में कम न पड़ते। पर इस बार सुजान का अलग व्यवहार मन को व्यथित कर रहे रहा था। पता नहीं क्या यह एक बड़े तूफान से पहले की शांति थी।
   पिछली साल सुजान का उत्साह कुछ अलग ही था। आखिर क्यों न हो। उसका पड़ोसी भाई रमतो की नयी शादी जो हुई थी। सुंदरिया वास्तव में बहुत सुंदर थी। रमतो की माॅ रज्जो फूली न समा रही थी। इतनी सुंदर दुल्हन गांव में पहली बार जो आयी थी। हुरियारों का हुजूम हर रोज रमतो के घर का दौरा करता। सुंदरिया को रंग लगाये बिना न मानता। युवा आसानी से हटने का नाम न लेते। फिर अंत में जब रज्जो एक मोटा सा डंडा लेकर उन्हें खदेड़ती। आगे हुरियारों की भीड़ और पीछे गालियां देती रज्जो। गांव बालों का मुफ्त का मनोरंजन हो जाता। 
   वहीं सुंदरिया के चेहरे पर भी एक मुस्कान आ जाती। जिसे देख रज्जो का गुस्सा काफूर हो जाता। बहुरिया को दुआओं से नबाज बृद्धा घर में घुसती थी। 
   समय बदलते देर नहीं लगती। दुल्हन के हाथ गंदे न हो जायें, इस भय से सुंदरिया से काम भी न कराने बाली रज्जो ताई के घर अब सारा काम सुंदरिया ही करती है। कभी उसकी सुंदरता के चर्चे थे तो आज सभी उससे दूर भागते हैं। मानों कि वह कोई छूत की रोगिणी है। जो उससे दूर हो सकता था, वह दूर हो गया। पर रज्जो ताई, वह कैसे दूर होतीं। हो सकती थीं अगर सुंदरिया के मायके में भी कोई होता। फिर खुद के इलाज के लिये दिन भर सुंदरिया को भरसर गालियां देतीं। कभी कभी उसपर हाथ भी उठा देतीं। जानती थीं कि इसमें इस अबोध बालिका की कोई त्रुटि नहीं है। 
  फिर वही प्रश्न बार बार मन को दग्ध करता। यदि सुंदरिया का दोष नहीं तो किसका है। विवाह से पूर्व रमतो कभी बीमार नहीं पड़ा। कभी उसे एक इंजेक्शन भी नहीं लगाया गया। और सुंदरिया के आगमन के बाद…. ।सचमुच सुंदरिया का ही दोष है। मैं भी मूर्ख… इसकी सूरत पर रीझ गयी। सूरत से ज्यादा तकदीर जरूरी है। आज सूरत खुद रो रही है। साथ बालों को रुला रही है। और रमतो… ।उसकी बात मत करो। निर्मोही…। छोड़ कर चला गया। कहीं दूसरी दुनिया में। 
क्रमशः अगले भाग में 
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’
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