धर्म और हमारा स्वतंत्रता संग्राम (अंतिम भाग) –
आगे भगत सिंह अपने लेख में लिखते हैं – रूसी महात्मा टॉलस्टॉय ने अपनी पुस्तक (Essay and Letters)में धर्म पर बात करते हुए उसके तीन हिस्से किए हैं-
1. Essentials of Religion, यानी धर्म की जरूरी बातें अर्थात सच बोलना, चोरी न करना, गरीबों की सहायता करना, प्यार से रहना, वगैरा।
2. Philosphy of Religion, यानी जन्म – मृत्यु ,पुनर्जन्म ,संसार रचना आदि का दर्शन। इसमे आदमी अपनी मर्जी के अनुसार सोचने और समझने का यत्न करता है।
3. Rituals of Religion, जानी रस्मो रिवाज वगैरा। मतलब यह है कि पहले हिस्से में सभी धर्म एक है। सभी कहते हैं कि सच बोलो , झूठ ना बोलो, प्यार से रहो। इन बातों को कुछ सज्जनों ने Individual Religion कहां है। इसमें तो झगड़े का प्रश्न ही नहीं उठता। वरन यह है कि ऐसे नेक विचार हर आदमी में होने चाहिए। दूसरा फिलॉसफी का प्रश्न है असल में कहना पड़ता है कि ‘फिलॉसफी इज द आउटकम ऑफ ह्यूमन विकनेस’ यानी फिलोसफि आदमी की कमजोरी का फल है। जहां भी आदमी देख सकते हैं, वहां कोई झगड़ा नहीं है । जहां कुछ नजर ना आया वही दिमाग लगाना शुरू कर दिया और खास खास निष्कर्ष निकाल लिए। वैसे तो
फिलोसफि बड़ी जरूरी चीज है क्योंकि इसके बगैर उन्नति नहीं हो सकती, लेकिन इसके साथ-साथ शांति होनी भी बड़ी जरूरी है। हमारे बुजुर्ग कह गए हैं कि मरने के बाद पुनर्जन्म भी होता है, ईसाई और मुसलमान इस बात को नहीं मानते। बहुत अच्छा अपना अपना विचार है। आइए, प्यार के साथ बैठकर बहस करें। एक दूसरे के विचार जाने। लेकिन ‘मसला -ए- तनासुक पर बहस होती है तो
आर्यसमाजीयों व मुसलमानों में लाठियां चल जाती हैं। बात यह है कि दोनों पक्ष दिमाग को, बुद्धि को, सोचने समझने की शक्ति को ताला लगाकर घर रख आते हैं। वह समझते हैं कि वेद भगवान ने ईश्वर ने इसी तरह लिखा है और वही सच्चा है। वह कहते हैं कि कुरान शरीफ में खुदा ने ऐसे लिखा है और यही सच है। अपने सोचने की शक्ति को छुट्टी दी हुई होती है । सो जो फिलॉसफी हर व्यक्ति की निजी राय से अधिक महत्व रखती हो तो एक खास फिलोसफि मानने के कारण भिन्न गुट न बने, तो इसमें क्या शिकायत हो सकती है।
अब आती है तीसरी बात रस्मो रिवाज, सरस्वती पूजा वाले दिन सरस्वती की मूर्ति का जुलूस निकालना जरूरी है उसमें आगे -आगे बेंड बाजा बजना भी जरूरी है। लेकिन हैरीमन रोड के रास्ते में एक मस्जिद भी आती है । इस्लाम धर्म कहता है कि मस्जिद के आगे बाजा न बजे। अब क्या होना चाहिए? नागरिक आजादी का हक कहता है कि बाजार में बाजा बजाते हुए भी जाया जा सकता है। लेकिन धर्म कहता है कि नहीं। इनके धर्म में गाय का बलिदान जरूरी है और दूसरे में गाय की पूजा लिखी हुई है। अब क्या हो? पीपल की शाखा कटते ही धर्म में अंतर आ जाता है तो क्या किया जाए? तो यही
फिलोसाफि व रस्मो रिवाज के छोटे-छोटे भेद बाद में जाकर नेशनल रिलीजन बन जाते हैं और अलग-अलग संगठन बनने के कारण बनते हैं। परिणाम हमारे सामने हैं।
सो यदि धर्म पीछे लिखी तीसरी और दूसरी बात के साथ अंधविश्वास को मिलाने का नाम है तो धर्म की कोई जरूरत नहीं। इसे आज ही उड़ा देना चाहिए। यदि पहली और दूसरी बात में स्वतंत्र विचार मिलाकर धर्म बनता हो तो धर्म मुबारक है।
लेकिन अलग-अलग संगठन और खाने-पीने का भेदभाव मिटाना जरूरी है। छूत अछूत शब्दों को जड़ से निकालना होगा। जब तक हम अपनी तंगदिली छोड़कर एक ना होंगे ,तब तक हममें वास्तविक एकता नहीं हो सकती। इसलिए ऊपर लिखी बातों के अनुसार चलकर ही हम आजादी की ओर बढ़ सकते हैं। हमारी आजादी का अर्थ केवल अंग्रेजी चंगुल से छुटकारा पाने का नाम नहीं, वह पूर्ण स्वतंत्रता का नाम है जब लोग परस्पर घुल मिलकर रहेंगे और दिमागी गुलामी से भी आजाद हो जाएंगे।
क्रमशः
गौरी तिवारी
भागलपुर बिहार